Monday 31 October 2011

लघुकथा


इंसान - ईश्वर की अनुपम कृति

पूर्णिमा की रात, जब चारों तरफ सन्नाटा फैला हुआ था। चाँद भी बादलों के पीछे छुप गया जैसे कि उसे भी बादलों के पीछे इस रात कि तन्हाई का डर सता रहा हो। क्या समां था के चाँद छुपा बादल में और ठंडी ठंडी मदहोश हवा सभी का मन जीत रही हो। तभी अचानक जोरों से हवाएं चलने लगी और चाँद की चांदनी भी अब बादलों के संग आँख मिचौली खेलने लगी. और फिर अचानक आसमान में बिजलियाँ कड़कने लगीं। और फिर एक तेज चमक और गरज के साथ बिजली कब्रिस्तान कि एक कब्र पर गिरी, जिससे कि वह कब्र खुल गई। तब अचानक चारों तरफ फिर वही सन्नाटा छा जाता है और एक अनजानी आवाज आती है - श्उठो, उठो पुत्र! मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूँ।श्

तभी उस कब्र से एक रूह बहार आती है और वह कहती है - श्कौन...? कौन... हैं आप?श्

श्इस सवाल का जवाब तो तुम्हे खुद से पूछना चाहिए... श्

श्मुझे माफ करें, प्रभु! मैं खुशी में भूल गया था कि मैं तो अब मर चुका हूँ और इस स्थिति में मुझसे आपके अलावा और कोई बात कर ही नहीं सकता। क्षमा करें, प्रभु! क्षमा करें!!श्

श्शांत हो जाओ पुत्र! और ये बताओ कि तुम आज इतने प्रसन्न क्यों हो?श्

श्प्रभु! प्रसन्न होने की तो बात ही है, क्योंकि मैं अब ज़िन्दा नहीं हूँ और अगर मैं ज़िन्दा होता तो आपसे प्रत्यक्ष बात भी न कर पाता।श्

श्तुम्हारी तरह के लोग मुझे कम ही मिलते हैं जो अपनी मृत्यु के पश्चात् भी प्रसन्न होते हैं और आज बहुत समय बाद तुम जैसा कोई मेरे समक्ष आया है, अतः आज तुम जो मांगो मैं देना चाहूँगा।श्

श्प्रभु! बहुत-बहुत धन्यवाद आपका जो आपने मुझे इस काबिल समझा, वरना मैं तो किसी काबिल ही ना था। अतः आप मुझे कोई ऐसी शक्ति प्रदान करें  जिससे मैं इस मानव जाति का उद्धार कर सकूँ। ऐसी शक्ति जिससे मैं पूरी मानव जाति को सदबुद्धि दे सकूँ।श्

श्पुत्र! तुमने ये वरदान ही क्यों माँगा? तुम आज अपना जीवन पुनः माँग सकते थे।श्

श्प्रभु! मैं अपना जीवन जी चुका, अब मुझे उसी जीवन को पुनः जीना मंजूर नहीं इसीलिए आप मुझे मेरा जीवन न दें अपितु इच्छित वरदान मुझे प्रदान करें।श्

श्पुत्र! तुमने जो वरदान माँगा है, वो अगर मैं तुम्हें दे भी दूँ तो भी ये संभव नहीं कि तुम इस मानव-जाति का उद्धार कर सको।श्

श्वह क्यों प्रभु?श्

श्वह इसलिए, क्योंकि बिना इस धरती पर जन्म लिए कोई मनुष्य किसी मनुष्य का भला नहीं कर सकता। क्योंकि जब तुम्हे कोई देख ही नहीं पायेगा, सुन नहीं पायेगा, स्पर्श नहीं कर सकेगा तो तुम कैसे किसी मनुष्य को सदबुद्धि दे सकोगे! श्

श्परन्तु प्रभु! मैं इस धरती पर जन्म नहीं लेना चाहता। क्योंकि आज यह मानव जाति इस कदर भ्रमित हो चुकी है कि मैं चाह कर भी उनके सामने रहकर उनका भला नहीं कर पाउँगा।श्

श्तो फिर तुम कोई दूसरा वरदान माँग लो।श्

श्ठीक है प्रभु, अगर आप ऐसा ही चाहते हैं तो मुझे कुछ ऐसा वरदान दें कि आने वाली पीढ़ी बुद्धिजीवी हों और वे जिस किसी से भी कुछ पल के लिए ही सही मिलें उनके मन में सद्भावना और सदाचार का प्रसार हों तभी मेरा आपसे मिलना सार्थक हो पायेगा।श्

श्आज तुम्हारे इस वरदान ने मुझे यकीन दिला दिया है कि मैंने अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति इंसान को ही क्यों माना। मैं तुम्हारी भावनाओं का सम्मान करते हुये तुम्हे तुम्हारा वरदान देता हूँ, तथास्तु!

 

                                                         महेश बारमाटे माही

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