Sunday 30 October 2011

शख्सियत

                                                                                                

अजीम शायर मिर्जा गालिब 
                                                           एम अफसर खां सागर

रगों में दौड़ने फिरने के हम नहीं कायल,
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है।

    उनकी शेरो-शायरी की पूरी दुनिया कायल है। आम लोगों की तल्ख़ जिन्दगी की हकीकतों को जुबां देना उनका मकसद था। उर्दू शायरी को उन्होने ऐसी क्लासिकी मुकाम दिया कि उर्दू अदब को उनपर नाज है। उनका अन्दाजे बयां आम व खास सबको पसन्द है। वे अपने आप में बेमिसाल शायर हैं। अब तक तो आप शायद समझ ही गये होंगे कि यहाँ बात किसी और की नहीं बल्कि शायरे आजम मिर्जा ग़ालिब की हो रही है।
    27 दिसम्बर सन् 1797 ई. को मिर्जा असद उल्लाह खाँ ‘ग़ालिब’ का जन्म उनके ननिहाल आगरा के कालामहल में रात के समय में हुआ था। चूंकि इनके पिता फौजी नौकरी में इधर-उधर घूमते रहे इसलिए इनका पालन-पोशण ननिहाल में ही हुआ। पाँच साल की अवस्था में ही पिता का साया सर से उठने के बाद चाचा नसीरुल्लाह ने इनका पालन किया शीघ्र ही उनकी मृत्यू हो गयी और यह अपने ननिहाल आ गये। मिर्जा ग़ालिब शुरु में असद नाम से रचनाएँ की तथा बाद में ग़ालिब उपनाम अपनाया।
    ग़ालिब ने फारसी की प्रारम्भिक षिक्षा आगरा के तत्कालीन विद्वान मौलवी मोहम्मद मोअज्जम से प्राप्त की तथा शुरु में फारसी में ग़लज लिखने लगे। इसी जमाने (1810 -1811) में मुल्ला अब्दुस्समद जो कि फारसी और अरबी के प्रतिश्ठित विद्वान थे तथा इरान से आगरा आये थे। तब ग़ालिब केवल चौदह साल के थे तथा फारसी पर उनकी पकड़ काफी मजबूत हो गया थी। मुल्ला अब्दुस्समद दो वर्ष तक आगरा रहें इस दौरान ग़ालिब ने उनसे फारसी भाषा एवं काव्य की बारीकियों का ज्ञान प्राप्त किया तथा उसमें ऐसे पारंगत हो गये जैसे कि वह खुद इरानी हों। ग़ालिब से अब्दुस्समद काफी प्रभावित हुये तथा उन्होने अपनी सारी विद्या ग़ालिब में उँडेल दी। षिक्षा के प्रारम्भिक दौर से ही ग़ालिब शेरो-षायरी करने लगे थें। मात्र तेरह वर्ष की उम्र में ही ग़ालिब की शादी 09 अगस्त 1890 ई. को लोहारू के नवाब अहमद बख्श खां के छोटे भाई मिर्जा इलाही बख्श ‘मारूफ’ की लड़की उमराव बेगम से हुई। उस वक्त उमराव बेंगम की उम्र केवल 11 साल की थी। शादी के पहले ग़ालिब कभी-कभी दिल्ली जाते थे मगर शादी के दो-तीन साल बाद तो दिल्ली के ही हो गये। उन्होने इस वाकया का जिक्र अपनी किताब उर्दू-ए-मोअल्ला में करते हुए लिखा है कि ‘07 रज्जब 1225 हिजरी को मेंरे वास्ते हुक्म दवाये हब्स साहिर हुआ। एक बेड़ी मेरे पांव में डाल दी गयी और दिल्ली शहर को कैदखाना मुकर्रर किया गया और इस कैदखाने में डाल दिया गया।’
    आगरा शहर को छोड़ना और दिल्ली में बसना ग़ालिब के जीवन में काफी बदलाव ला दिया। दिल्ली में उन दिनों शायराना माहौल था। रोज़ाना महफिलें गुलजार होतीं और मुषायरों का दौर चलता। ग़ालिब का भी उन मुषायरों में जाना होता। दिन-ब-दिन माहौल में ढ़लने लगे। ग़ालिब के बारे में दो बातें बहुत मषहूर थीं और उसकी चर्चा अक्सर होती। एक तो वे फलसफी शायर थें दूसरे उनका कलाम बहुत मुष्किल होते थें। मुषायरों, जलसों व महफिलों में इनकी मुष्किल गोई के चर्चे आम थेें। लोग कहतें कि ‘अच्छा तो कहते हैं पर भई बहुत मुष्किल कहते हैं।’ एक बार का वाकया है कि मौलाना अब्दुल कादिर रामपुरी ने ग़ालिब साहब से कहा कि आपका उर्दू शेर समझ में नहीं आता है और दो मिसरे मौजू किये-
            पहले तो रोगने गुल भैंस के अंडे से निकला,
            फिर दवा जितना है कुल भैंस के अंडे से निकला।
इसपर ग़ालिब साहब हैरान हुए और कहा कि ये मेरे शेर नहीं हैं तो कादिर साहब ने कहा कि जनाब आपके दीवान के असआर हैं। इस पर ग़ालिब साहब चिढ़ कर बोले -
            न सताइस की तमन्ना न सिले की परवाह,
            गर नहीं हैं मेरे असआर में मानी न सही।
ग़ालिब साहब बहुत जल्द सोहरत की बुलंदियों पर पहुँच गये। उन्होने उर्दू शायरी को एक नया आयाम दिया। वे उर्दू शायरी को तंग गलियारों हुस्न व इष्क, गुलो व बुलबुल में न घुट कर शायरी को नई पहचान दिया। ग़ालिब साहब के शेरों में दर्षन का झलक मिलता है। वे सूफी भी नहीं है। उनका यह शेर काबिे गौर है -
            ये मसायले तसव्वुफ ये तेरा बयान ग़ालिब,
            तुझे हम वली समझते जो न बादाखार होता।
    ग़ालिब साहब खर्चिले व उदार स्वभाव के थे, जिसके चलते अक्सर वे तंगहाल रहते। यहाँ तक की कभी-कभी पास में फूटी कौडी न होती। एक बार उधार की शराब पीन कर पैसा न देने पर इन पर मुकदमा चला। मुकदमा मुफ्ती सदरूद्दीन की अदालत में था। आरोप सुनकर इन्होने सिर्फ एक शेर सुनाया
            कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ,
            रंग लायेगी हमारी फाकामस्ती एक दिन।
इतना सुनना था कि मुफ्ती साहब ने अपने पास से रूपये निकाल कर दिये और ग़ालिब को जाने दिया।
एक बार रमजान के महिने में नवाब हुसैन ग़ालिब के पास बैठे थे। हस्बे मामूल ग़ालिब ने पान मंगवा के खाया, वहीं पर बैठे एक धार्मिक मुस्लमान ने सवाल किया कि आप रोजा नहीं है, तो ग़ालिब ने मुस्कुराकर जवाब दिया कि - ‘षैतान ग़ालिब है।’ ये खुद को नास्तिक मानते थें एक शेर है कि -
            हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,
            दिल को खुष रखने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है।
ग़ालिब का दाम्पत्य जीवन कभी सुखी नहीं रहा। वह दुःख की एक लम्बी कहानी है जिसमें नायक व नयिका वेदनाओं का बोझ ढ़ोते हुए जिन्दगी पूरा करते हैं। उमराव का अहंकार एक तरफ और ग़ालिब का अहंकार दूसरी तरफ। टकराव बढ़ता गया और दोनों कटते गयें। यही कारण था कि घर में दिल की छाया न पाने की वजह से ग़ालिब एक गायिका से दिल लगा बैठे और वह भी इनसे प्यार करने लगी। कई वर्षों तक ग़ालिब का उससे प्यार चलता रहा, अचानक उसकी मौत हो गयी जिससे कि ग़ालिब पूरी तरह से टूट गये। उसकी याद में इन्होने जो रचनाएँ की वे बेहद दर्द भरी हैं -
            तेरे दिल में गर न था आषो-बे-गम का हौसला,
            तू ने फिर क्यों की थी गम गुसारी हाय-हाय।
            उम्र भर का तू ने पैमाने वफा बाँधा तो क्या,
            उम्र भर नहीं है पायदारी हाय-हाय।।
एक बार ग़ालिब साहब बनारस आयें तो उन्होने कहा था कि अगर मैं जवानी में यहाँ आता तो बस जाता। सुबह-ए-बनारस और गंगा ने उन्हे काफी मोहा था। बनारस को ग़ालिब साहब ने हिन्दुस्तान का काबा कहा था। जिसका जिक्र इस शेर में है-
            इबादत खानाए नाकुसियां अस्त,
            हमाना काबाए हिन्दुस्तानां अस्त।
    (यह शंख वादकों का उपासना स्थल है। निष्चय ही यह हिन्दुस्तान का काबा है।)
जिन्दगी की तल्खीयों व मुसीबतों को झेलते-झेलते ग़ालिब साहब इतना सख्त हो गये थे कि ग़म उन्हे हिला न सका। वे बेहद स्वाभिमानी स्वभाव के शख्स थे। कभी-कभी बेहिसाब मुसिबतों का सामना करना पड़ता तथा हाताल उनपर हाबी होने लगता मगर उन्होने स्वाभिमान से कभी समझौता नहीं किया। सन् 1852 ई. में दिल्ली कालेज में फारसी का अध्यापक बनाने का प्रस्ताव भेजकर टामसन ने ग़ालिब साहब को अपने बंगले पर निलने को बुलवाया। टामसन ने कुछ ऐसी बात कही कि ग़ालिब साहब के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचा उन्होने नौकरी से इन्कार कर दिया। मुस्किलों से लड़ते-लड़ते एक दिन उनहोने लिखा कि -
            मुष्किलें मुझपर पड़ी इतना की आसां हो गर्यीं।
    तत्कालीन मुगल बादषाह बहादुर शाह जफर खुद शायर थे तथा उनके नजदीक शायरों का कद्र था सो उन्होने ग़ालिब साहब की मुफलीसी पर तरस खाकर उन्हे तैमूर खानदान का इतिहास फारसी में लिखने का काम सौंपा। इसी बीच जफर साहब के उस्ताद जौक का इन्तकाल हो गया और वे अपना कलाम ग़ालिब को दिखाते, इसपर ग़ालिब ने एक दिन कहा कि -
            हुआ है शाह का मुसाहिब फिरा है इतराता,
            वरना इस शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है।
ग़ालिब साहब पर जफर का बहुत करम था इसलिए वे अक्सर उनकी शान में कसीदे पढ़ते रहते। एक बार अर्ज किया कि -
            ग़ालिब वजीफाख्वार हो दो शाह को दुआ,
            वो दिन गये कि कहते थे कि नौकर नहीं हूँ मैं।
बहादुर शाह जफर को कैद कर रंगून भेज दिया गया और ग़ालिब का पेंषन भी बन्द हो गया। इस बात का जिक्र ग़ालिब ने अपनी किताब दस्तंबू में भी किया है। इन्होने सोचा कि शान्ति होने पर पेंषन चालू होगा मगर ऐसा न हो सका। तब ग़ालिब ने चापलूसी वाला रास्ता अख्तियार किया और महारानी विक्टोरिया के शान में कसीदे गढ़ कर दिल्ली के अधिकारीयो के जरिये भिजवाया। फिर भी बात न बनी और 17 मार्च 1857 को दिल्ली के कमिष्नर ने यह लिख कर वापस कर दिया कि इसमें कोरी प्रषंसा है। हालात दिन-ब-दिन दुष्वार होते गये, यहाँ तक की घर के कपड़े-लत्ते बेचकर दिन कट रहे थे। एक पत्र में उन्होने अपने जीवन के निराषा को लिखा कि ‘‘ 53 माह का पेंषन। तकर्रूर इसका बतजवीज लार्ड लेक व बमंजूरी गर्वनमेंट और फिर न मिला है न मिलेगा। खैर, एहतमाल है मिलने का। अली का बन्दा है। उसकी कसम कभी झूठ नहीं खाता। इस वक्त कल्लू (वफादार सेवक) के पास एक रूपया सात आना बाकी है। बाद इसके न कहीं कर्ज की उम्मीद है, न कोई जिंस रेहन व बयेक काबिल।’’
    काफी निराष हो कर दिल्ली से बाहर जाने का निर्णय लिया। खैर तय हुआ बीबी व बच्चे लोहारू जायें। वे अकेले रहना पसन्द किये और लिखा -
            रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो।
रामपुर के नवाब, गोपाल दास तफ्ता और महेष दास जैसे करीबी दोस्तो के सहारे जिंदगी की आखिरी शाम ढ़लती रही। ग़ालिब दिन-ब-दिन टूटते चले गयें। पहले नातवाँ थे फिर नीमजान हुए। पेट की अतडियां मरोडे खाने लगीं। हालात ऐसे पड़े कि दो-चार सतर लिखने के बाद हाथ खुद-ब-खुद रूक जाते। फिर वह शाम आयी जिसने ग़ालिब साहब के इकहत्तर साल की लम्बी तड़प को खत्म कर उन्हे मौत के आगोष में हमेषा के लिए सुला दिया। 15 फरवरी 1869 की दोपहर ने इस अजीम षायर को हमेषा के लिए मौत की गहरी नींद की आगोष में ले लिया। नींद की ऐसी प्यास जो कभी खत्म न होने वाली थी।
    ग़ालिब अपने जमाने में मीर तकी मीर के काफी चाहने वालों में थे। इन्होने उनके बारे में भी काफी लिखा है। जिंदगी के इकहत्तर साल के लम्बे सफर में ग़ालिब ने उर्दू और फारसी की बेइनतहा खिदमत कर खूब षोहरत कमाया। अपनी तेजधार कलम की बदौलत उनहोने उर्दू शायरी को नया मुकाम, नई जिन्दगी और रवानी दी। अगर बात उर्दू अदब की हो और जिक्र ग़ालिब का ना हो तो बेमानी है। अदब की दुनियाँ में जहाँ शेक्सपीयर, मिल्टन, टैगोर, तुलसदास का मुकाम है ग़ालिब भी वहीं नुमाया हैं। उनकी दीवान विष्व साहित्य के लिए अनमोल धरोहर है। उर्दू अदब में भले ही अनकों शायर हुये हों मगर ग़ालिब के कलाम पढ़ने व सुनने वालों के दिलों की कैफियत बदल देती है। ग़ालिब के कलाम आज भी गंगा के रवानी की तरह लोगों के जेहन व जुबान पर कल-कल करती हुई बह रही है तथा हमेषा लोगों के मष्तिस्क पटल पर जिन्दा रहेंगी।
                        हम आह भी भरते हैं तो हो जाते बदनाम,
                        वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती।

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