Monday 31 October 2011

कविता

वो कौन था..?

 

वो कौन था,
जो हर मुलाकात में रहा मौन था?

आज फिर हुई उससे मुलाकात ऐसी,
के लगा आज अमावस भी खिली हो चांदनी रात जैसी...

सोचा के लबों पे आज तो कोई बात आएगी,
और बातों - बातों में गुजर ये रात जाएगी...

पर जाने वो "क्या" और "कौन" था,
क्योंकि आज भी रहा वो पहले की तरह मौन था..?

हमें लगा के शायद वो, अँखियों से कर रहा था अपना अंदाज़े - बयाँ,
पर अँखियों में आज भी उसकी न था कुछ भी नया...

पलकें जो एक बार झुकाई तो कभी न उठाई होंगी उसने,
जैसे सदियों से किसी से नज़रें न मिलाई होंगी उसने...

ऐसा नहीं के उसकी रगों में न बह रहा खून था,
पर हर बार की तरह वो जाने क्यों रहा मौन था..?

लबों से कभी उसने कुछ भी न कहा,
पर धडकनों को शायद मेरी उसने था सुन ही लिया...

क्योंकि आज धडकनों में उसकी एक हलचल सी थी,
आज दिल में भी मेरे एक खलबल सी थी...

समझ न पाया मैं अब तक उसको, इन चाँद मुलाकातों में,
बातें जो उसने कही, उन निःशब्द बातों में...

क्योंकि वो आज भी मेरे लिए सिर्फ और सिर्फ "कौन" था...
अंतः मन की सुरीली आवाजों वाला, जाने वो क्यों मौन था...?

एक सवाल की तरह वो मेरे जेहन में उतर गया...
हर मुलाकात के बाद उसकी आवाज सुनने का मेरा हर सपना बिखर गया...

सुना है उसकी चहक से, महक उठता था कभी ये सारा आलम,
पर उसके लबों की थरथराहट से भी महरूम हैं आज हम...

अब तो उसकी शाने - ग़ज़ल पे कुछ भी लिखना, मुझे कम लगता है,
उसकी हर एक अदा जिंदगी देती है मुझको, पर उसका चुप रहना मुझे गम लगता है...

अब तो यही ख्वाहिश है के वो मौन न रहे,
आ के दे दे वो मेरे सारे सवालों के जवाब,
ताकि वो मेरे लिए कभी "क्या" और "कौन" न रहे...

फिर भी एक आखिरी सवाल है उठ रहा दिल में मेरे, के आखिर वो कौन था,
जो शायद सिर्फ मेरे लिए ही रहा हर वक़्त मौन था ?

महेश बारमाटे माही

लघुकथा


इंसान - ईश्वर की अनुपम कृति

पूर्णिमा की रात, जब चारों तरफ सन्नाटा फैला हुआ था। चाँद भी बादलों के पीछे छुप गया जैसे कि उसे भी बादलों के पीछे इस रात कि तन्हाई का डर सता रहा हो। क्या समां था के चाँद छुपा बादल में और ठंडी ठंडी मदहोश हवा सभी का मन जीत रही हो। तभी अचानक जोरों से हवाएं चलने लगी और चाँद की चांदनी भी अब बादलों के संग आँख मिचौली खेलने लगी. और फिर अचानक आसमान में बिजलियाँ कड़कने लगीं। और फिर एक तेज चमक और गरज के साथ बिजली कब्रिस्तान कि एक कब्र पर गिरी, जिससे कि वह कब्र खुल गई। तब अचानक चारों तरफ फिर वही सन्नाटा छा जाता है और एक अनजानी आवाज आती है - श्उठो, उठो पुत्र! मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूँ।श्

तभी उस कब्र से एक रूह बहार आती है और वह कहती है - श्कौन...? कौन... हैं आप?श्

श्इस सवाल का जवाब तो तुम्हे खुद से पूछना चाहिए... श्

श्मुझे माफ करें, प्रभु! मैं खुशी में भूल गया था कि मैं तो अब मर चुका हूँ और इस स्थिति में मुझसे आपके अलावा और कोई बात कर ही नहीं सकता। क्षमा करें, प्रभु! क्षमा करें!!श्

श्शांत हो जाओ पुत्र! और ये बताओ कि तुम आज इतने प्रसन्न क्यों हो?श्

श्प्रभु! प्रसन्न होने की तो बात ही है, क्योंकि मैं अब ज़िन्दा नहीं हूँ और अगर मैं ज़िन्दा होता तो आपसे प्रत्यक्ष बात भी न कर पाता।श्

श्तुम्हारी तरह के लोग मुझे कम ही मिलते हैं जो अपनी मृत्यु के पश्चात् भी प्रसन्न होते हैं और आज बहुत समय बाद तुम जैसा कोई मेरे समक्ष आया है, अतः आज तुम जो मांगो मैं देना चाहूँगा।श्

श्प्रभु! बहुत-बहुत धन्यवाद आपका जो आपने मुझे इस काबिल समझा, वरना मैं तो किसी काबिल ही ना था। अतः आप मुझे कोई ऐसी शक्ति प्रदान करें  जिससे मैं इस मानव जाति का उद्धार कर सकूँ। ऐसी शक्ति जिससे मैं पूरी मानव जाति को सदबुद्धि दे सकूँ।श्

श्पुत्र! तुमने ये वरदान ही क्यों माँगा? तुम आज अपना जीवन पुनः माँग सकते थे।श्

श्प्रभु! मैं अपना जीवन जी चुका, अब मुझे उसी जीवन को पुनः जीना मंजूर नहीं इसीलिए आप मुझे मेरा जीवन न दें अपितु इच्छित वरदान मुझे प्रदान करें।श्

श्पुत्र! तुमने जो वरदान माँगा है, वो अगर मैं तुम्हें दे भी दूँ तो भी ये संभव नहीं कि तुम इस मानव-जाति का उद्धार कर सको।श्

श्वह क्यों प्रभु?श्

श्वह इसलिए, क्योंकि बिना इस धरती पर जन्म लिए कोई मनुष्य किसी मनुष्य का भला नहीं कर सकता। क्योंकि जब तुम्हे कोई देख ही नहीं पायेगा, सुन नहीं पायेगा, स्पर्श नहीं कर सकेगा तो तुम कैसे किसी मनुष्य को सदबुद्धि दे सकोगे! श्

श्परन्तु प्रभु! मैं इस धरती पर जन्म नहीं लेना चाहता। क्योंकि आज यह मानव जाति इस कदर भ्रमित हो चुकी है कि मैं चाह कर भी उनके सामने रहकर उनका भला नहीं कर पाउँगा।श्

श्तो फिर तुम कोई दूसरा वरदान माँग लो।श्

श्ठीक है प्रभु, अगर आप ऐसा ही चाहते हैं तो मुझे कुछ ऐसा वरदान दें कि आने वाली पीढ़ी बुद्धिजीवी हों और वे जिस किसी से भी कुछ पल के लिए ही सही मिलें उनके मन में सद्भावना और सदाचार का प्रसार हों तभी मेरा आपसे मिलना सार्थक हो पायेगा।श्

श्आज तुम्हारे इस वरदान ने मुझे यकीन दिला दिया है कि मैंने अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति इंसान को ही क्यों माना। मैं तुम्हारी भावनाओं का सम्मान करते हुये तुम्हे तुम्हारा वरदान देता हूँ, तथास्तु!

 

                                                         महेश बारमाटे माही

Sunday 30 October 2011

कविता

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फीचर

वक्त से लाचार हंसी के अलमबरदार

एम. अफसर खां सागर




एक महान विचारक ने कहा है कि ‘व्यक्ति को अगर जीवन में सफल होना है तो आम जिन्दगी में एक कलाकार की तरह अभिनय करे औैर जब रंगमंच के स्टेज पर नुमाया हो तो आम जिन्दगी जीये।’ कुछ  ऐसे ही दो रिफरेंसल फ्रेम में बखूबी जीवन जीने की कला को सच कर दिखाया है बहुरूपियों ने। कभी लैला-मजनू तो कभी संयासी, पागल, शैतान, भगवान शंकर, डाकू, नारद और मुनीम जैसे तमाम किरदारों को ये बखूबी निभाते हैं। कहा जाता है कि नायक और खलनायक का रोल कभी एक व्यक्ति द्वारा नहीं निभाया जा सकता है। दोनों रोल कभी-कभार फिल्मों में ही एक साथ देखा जाता है लेकिन ये बहुरूपिये इस मिथक को पूरी तरह झुठला देते हैं। ये विभिन्न किरदारों को इस कदर पेष करते हैं कि एक बारगी लोग उन्हे वास्तविक समझ बैठत हैं।
    विभिन्न रूपों का स्वांग रचाकर ये बहुरूपिये दो जून की रोटी की खातिर लोगों की दिलजोई करते अक्सर नजर आते हैं। मगर कोई उनके दिल से तो पूछे कि दूसरों को प्रसन्न करने वाले इन लोगों की जिन्दगी कितनी तल्ख है। गली-मुहल्लों में नारदा-नारद की रट लगाते भगवान नारद हों या फिर लैला-लैला की पुकार करता मजनू इन्हे देख कर आम लोग तो बड़ी आसानी से मुस्कुरा देते हैं मगर जिन्दगी के रंगमंच पर खुद को पागल साबित करते ये बहुरूपिये सिर्फ दो जून की रोटी के लिए खुद की खुषयों की बलि दे देते हैं।
    वक्त के घूमते पहिये ने इन बहुरूपियों को भी अपनी जद में लिया है। आधुनिकीकरण और इन्टरनेट की फंतासी दुनिया तथा विडियोगेम ने बहुरूपियों के इस स्वांग कला को चौपट कर दिया है। पहले ये जिस गली-कूचे से भगवान का रूप धारण कर निकलते तो लोगों के शीष आस्था पूर्वक झूक जाते थें तथा लोग इन्हे आसानी से अन्न व धन अर्पित कर देते थे जिससे की इनका और इनके परिवार का पेट बड़ी आसानी से पलता था। मगर अब इनकी कला के कद्रदान ही नहीं रहे अगर ये किसी मुहल्ले से गुजर भी जाते हैं तो लोग इन्हे हिकारत भरी नजरों से देखते हैं।


    अक्सर गांव कूचों में नारद-नारद की रट लगाने वाले गोपाल शर्मा ‘नारद’ कहते हैं कि ‘अभी ज्यादा समय नहीं बीता है बस पाँच-छः साल पुरानी बात है मैं जिस गली से गुजरता बच्चे पीछे-पीछे हो लेते तथा लोग प्रसन्नता पूर्वक हमें कला के बदले कुछ न कुछ दिया करते मगर अब वैसा वक्त कहाँ रहा।’ क्या कारण है कि लोग अब बहुरूपियों में रूचि नहीं लेते ? इस पर नारद का जवाब था कि ‘अब घर-घर सी.डी. और टी.वी. हो गया है उस पर तरह-तरह के बनावटी प्रोग्राम दे रहे हैं अब हमारी पूछ कहाँ।’
    वक्त के बदलते मिजाज ने इनके व्यवसाय को काफी नुक्सान पहुँचाया है। पष्चिमी संस्कृति के भारत में आ जाने से परम्परागत भारती संस्कृति का क्षरण हुआ है जिसकी वजह से इस स्वांग कला के कद्रदानों में कमी आयी है। विगत तीन दषकों से उत्तर प्रदेष के विभिन्न जनपदों में पूरे सप्ताह लोगों का मनोरंजन करने वाले बिहार के दुमदुम जिला कैमुर निवासी मुहम्मद सलीम की बात ही निराली है। अमूमन हर किरदार चाहे वह पागल, प्रेमी, शैतान व मुनीम का हो जीवंत प्रस्तुत करते हैं। अपने किरदार से लोगों के गम, थकन, उदासी और बेचैनी को मिटाने वाले सलीम आज खुद बेचैन हैं। कहते हैं ‘पेट ही सब कुछ कराता है जनाब। पेट ना हो तो  भेट ना हो।’
    मुहम्मद सलीम कहते हैं कि ‘पहले जब मैं यहाँ आता तो बहुत सम्मान मिलता गाँव-गाँव घूम कर लोगों का मनोरंजन करता और लोग खूब बखषिष देते। हफ्ते भर के मनोरंजन के बाद आखिरी दिन मुनीम का रूप  धारण कर मुहम्मद सलीम बड़े सलीके से अदाकारी पेष कर जो कुछ मिलता उसे अपने बही खाते में विधिवत दर्ज करते ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत पर काम आये। इनको अफसोस इस बात का है कि इस स्वांग कल की तरफ सरकार सरकार पूरी तरह से आँखें मूदे हुए है। यही वजह है कि मेरे बाद मेरे बच्चे इस लाइन में आना पसन्द नहीं करते। अब यह धन्धा मुनाफे का नहीं रहा। सरकार को चाहिए कि इसे अपना संरक्षण प्रदान करे ताकि यह कला जीवित रह सके। वरना बहुरूपिये वक्त के औराक़ बन जायेंगे।
    प्रशासनिक उपेक्षा कहें या समाज की संवेदनहीनता कभी जिन बहुरूपियों से लोग लुत्फ अन्दोज हुआ करते थे, वे आज लुप्त होने के कगार पर हैं पर सरकार और समाज के रहनुमाओं की निगाह उनकी मुफलिसी पर नहीं पड़ती। गुमनामी में जीवन बिताते ये लोग कभी आम लोगों की खासा पसन्द हुआ करते थे मगर आज इनका कोई पुरसेहाल तक नहीं है।
भगवान शंकर का रूप धारण किये रामानन्द कहते हैं कि -           
वक्त बदला है तो इजहार बदलने होंगे,
 अब फसाने के हर किरदार बदलने होंगे।

वक्त के साथ चलना बेहद जरूरी है। अब न तो बहुरूपियों का जमाना रहा और न ही इस पारम्परिक मनोरंजन के कद्रदान। इसलिए होषियार व्यक्ति वही है जो समय रहते सही रास्ता अख़तियार कर ले। बस किसी तरह इस खाल को ओढ़ कर जिन्दा हूँ मगर खुद पे बेहद शर्मिंदा हूँ। कभी-कभी हालात तो ऐसे आ जाते हैं कि दो वक्त की रोटी के लाले पड़ जाते हैं। अब आप ही बताइए कि क्या कोई चालाक व्यक्ति कभी घाटे का सौदा करेगा ? हालात से मजबूर होकर आने वाली पीढ़ीयों ने इस धन्धे से तौबा कर लिया है।
    जिसका धन्धा ही उसकी बर्बादी का सबब हो ? जो दिन भर की मेहनत के बाद भी दो जून की रोटी के लिए मोहताज हो ? जिसके धन्धे में उसकी आने वाली पीढ़ीयों का मुस्तकबिल महफूज ना हो ? तो आप ही सोचिए क्या कभी वह व्यक्ति ऐसा घाटे का सौदा करना पसन्द करेगा ? हरगिज नहीं। कमोबेस यही हालत इन बहुरूपियों के साथ है। जहाँ पहले एक व्यक्ति दस-दस लोगों का परिवार चलाता था वहीं आज वह खुद मोहताज बने बैठा है। यहाँ काबिले गौर बात है कि ऐसे हालात में अपनी कुर्बानी देकर कौन इस स्वांग कला को जीवित रखेगा। कहते हैं जब तक प्यार और कला, आस्था और संवेदना, सहानुभूति और संस्कृति समाज के आधार स्तम्भ हैं तभी तक समाज है अन्यथा वह समाज या संस्कृति लुप्त हो जाती है।
    दूसरों के कुम्हलाये चेहरों पर हंसी बिखेरने वाले ये बहुरूपिये आज खुद गमगीन हैं। खुद गमों का स्याह समन्दर पीकर दूसरों के चेहरों पर हंसी की लाली बिखेरने वाले इन कलाकारों की तल्ख जिन्दगी का आज कोई पुरसेहाल नहीं है। हंसी के इन बाजीगरों के सामने आज दो जून की रोटी का संकट तो है ही साथ में बहुरूपिये जैसे परम्परागत स्वांग कला को मिटने से बचाने का दायित्व भी। आज जिन्दगी से दो तरफा मोर्चा लिये ये बहुरूपिये सरकार और समाज की उपेक्षा झेलते कब तक अपनी कल को जिन्दा रख पाते हैं यह कहना शायद मुनासिब नहीं है। पर इतना जरूर है कि अगर ये इस जंग में हार गये तो भरत की एक प्राचीन सांस्कृतिक विरासत अवस्य मिट जायेगी। जिसके लिए सरकार और समाज की समान रूप से जिम्मेदारी होगी।

पुस्तक लोकार्पण

वेदना से जन्म लेती है कविता
 

नागरी प्रचारिणी सभा वारणसी के पं0 सुधाकर पांडेय स्मृति कक्ष में आयोजित संगोष्ठि में ’दर्द की है गीत सीता’ काव्यपुस्तक का लोकार्पण करते हुए काषी हिन्दु विष्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के आचार्य एवं अध्यक्ष प्रो0 राधेश्यम दुबे ने कहा कि प्रसंग बदल जाने से शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। इसलिए जब पौराणिक प्रसंग काव्य रचना के लिए उठाये जाते हैं तो रचनाकार से बड़ी सावधानी की अपेक्षा की जाती है। मां सीता आधुनिक नारी विमर्ष के संदर्भ में उद्धृत तो की जा सकती हैं किन्तु उसका माध्यम नहीं बन सकती।
संगोष्ठि के अध्यक्ष डा0 कमलाकान्त त्रिपाठी ने कहा कि कविता का जन्म वेदना से होता है। पुस्तक का रचनाकार जिन संघर्षों से होकर गुजरा है उनके आलोक में ही कृति का समुचित मुल्यांकन किया जा सकता है। कला पक्ष की दृष्टि से भी काव्य महत्वपूर्ण है।
विषिष्ठ अतिथि गीतकार श्रीकृष्ण तिवारी ने कहा कि रचनाकार का लोक जितना बड़ा होगा उसी अनुपात में वह लोकमान्यता का अधिकारी होता है। लोक की संवेदना को अनुभूति के धरातल पर जीने की क्षमता ’दर्द की है गीत सीता’ के रचनाकर के भीतर दिखलाई पड़ती है।
डा0 रामअवतार पांडेय ने कहा कि कविता के लिए भावना और हृदय की पूंजी जरूरी है और वह पेषे से इंजिनीयर विजय कुमार मिश्र के भीतर दिखलाई पड़ती है। विष्व के महानतम नारी चरित्र सीता की वेदना को आधार बना कर उन्होने नारी विमर्ष के विचारणीय सूत्रों को अपनी इस कृति के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
लोकार्पण गोष्ठी में सर्वश्री षिवप्रसाद द्विवेदी, एल0 उमाषंकर सिंह, रामकृष्ण सहस्रबुद्धे, एम. अफसर खां सागर, विनय वर्मा, डा0 संजय पांडे, रूद्र प्रताप रूद्र, राम प्रकाष षाह, श्रीमती वत्सला और डा0 पवन कुमार षास्त्री ने भी विचार व्यक्त करते हुए रचनाकार को बधाई दी।
प्रारम्भ में आगंतुकों का स्वागत करते हुए रचनाकार विजय कुमार मिश्र ’बुद्धिहीन’ ने कहा कि इंजिनीयरिंग क्षेत्र में कार्य करते हुए अतिषय सुख-दुःख और रागात्मक संवेदना के क्षण जब प्राप्त हुए तब अपने भीतर जो अनुभूतियां व्यक्त हुईं उन्होनें अनायास कविता का रूप ले लिया।
धनयवाद प्रकाष समजीत षुक्लने, संयोजन ब्रजेष पांडेय ने तथा संचालन डा0 जितेन्द्र नाथ मिश्र ने किया।

शख्सियत

                                                                                                

अजीम शायर मिर्जा गालिब 
                                                           एम अफसर खां सागर

रगों में दौड़ने फिरने के हम नहीं कायल,
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है।

    उनकी शेरो-शायरी की पूरी दुनिया कायल है। आम लोगों की तल्ख़ जिन्दगी की हकीकतों को जुबां देना उनका मकसद था। उर्दू शायरी को उन्होने ऐसी क्लासिकी मुकाम दिया कि उर्दू अदब को उनपर नाज है। उनका अन्दाजे बयां आम व खास सबको पसन्द है। वे अपने आप में बेमिसाल शायर हैं। अब तक तो आप शायद समझ ही गये होंगे कि यहाँ बात किसी और की नहीं बल्कि शायरे आजम मिर्जा ग़ालिब की हो रही है।
    27 दिसम्बर सन् 1797 ई. को मिर्जा असद उल्लाह खाँ ‘ग़ालिब’ का जन्म उनके ननिहाल आगरा के कालामहल में रात के समय में हुआ था। चूंकि इनके पिता फौजी नौकरी में इधर-उधर घूमते रहे इसलिए इनका पालन-पोशण ननिहाल में ही हुआ। पाँच साल की अवस्था में ही पिता का साया सर से उठने के बाद चाचा नसीरुल्लाह ने इनका पालन किया शीघ्र ही उनकी मृत्यू हो गयी और यह अपने ननिहाल आ गये। मिर्जा ग़ालिब शुरु में असद नाम से रचनाएँ की तथा बाद में ग़ालिब उपनाम अपनाया।
    ग़ालिब ने फारसी की प्रारम्भिक षिक्षा आगरा के तत्कालीन विद्वान मौलवी मोहम्मद मोअज्जम से प्राप्त की तथा शुरु में फारसी में ग़लज लिखने लगे। इसी जमाने (1810 -1811) में मुल्ला अब्दुस्समद जो कि फारसी और अरबी के प्रतिश्ठित विद्वान थे तथा इरान से आगरा आये थे। तब ग़ालिब केवल चौदह साल के थे तथा फारसी पर उनकी पकड़ काफी मजबूत हो गया थी। मुल्ला अब्दुस्समद दो वर्ष तक आगरा रहें इस दौरान ग़ालिब ने उनसे फारसी भाषा एवं काव्य की बारीकियों का ज्ञान प्राप्त किया तथा उसमें ऐसे पारंगत हो गये जैसे कि वह खुद इरानी हों। ग़ालिब से अब्दुस्समद काफी प्रभावित हुये तथा उन्होने अपनी सारी विद्या ग़ालिब में उँडेल दी। षिक्षा के प्रारम्भिक दौर से ही ग़ालिब शेरो-षायरी करने लगे थें। मात्र तेरह वर्ष की उम्र में ही ग़ालिब की शादी 09 अगस्त 1890 ई. को लोहारू के नवाब अहमद बख्श खां के छोटे भाई मिर्जा इलाही बख्श ‘मारूफ’ की लड़की उमराव बेगम से हुई। उस वक्त उमराव बेंगम की उम्र केवल 11 साल की थी। शादी के पहले ग़ालिब कभी-कभी दिल्ली जाते थे मगर शादी के दो-तीन साल बाद तो दिल्ली के ही हो गये। उन्होने इस वाकया का जिक्र अपनी किताब उर्दू-ए-मोअल्ला में करते हुए लिखा है कि ‘07 रज्जब 1225 हिजरी को मेंरे वास्ते हुक्म दवाये हब्स साहिर हुआ। एक बेड़ी मेरे पांव में डाल दी गयी और दिल्ली शहर को कैदखाना मुकर्रर किया गया और इस कैदखाने में डाल दिया गया।’
    आगरा शहर को छोड़ना और दिल्ली में बसना ग़ालिब के जीवन में काफी बदलाव ला दिया। दिल्ली में उन दिनों शायराना माहौल था। रोज़ाना महफिलें गुलजार होतीं और मुषायरों का दौर चलता। ग़ालिब का भी उन मुषायरों में जाना होता। दिन-ब-दिन माहौल में ढ़लने लगे। ग़ालिब के बारे में दो बातें बहुत मषहूर थीं और उसकी चर्चा अक्सर होती। एक तो वे फलसफी शायर थें दूसरे उनका कलाम बहुत मुष्किल होते थें। मुषायरों, जलसों व महफिलों में इनकी मुष्किल गोई के चर्चे आम थेें। लोग कहतें कि ‘अच्छा तो कहते हैं पर भई बहुत मुष्किल कहते हैं।’ एक बार का वाकया है कि मौलाना अब्दुल कादिर रामपुरी ने ग़ालिब साहब से कहा कि आपका उर्दू शेर समझ में नहीं आता है और दो मिसरे मौजू किये-
            पहले तो रोगने गुल भैंस के अंडे से निकला,
            फिर दवा जितना है कुल भैंस के अंडे से निकला।
इसपर ग़ालिब साहब हैरान हुए और कहा कि ये मेरे शेर नहीं हैं तो कादिर साहब ने कहा कि जनाब आपके दीवान के असआर हैं। इस पर ग़ालिब साहब चिढ़ कर बोले -
            न सताइस की तमन्ना न सिले की परवाह,
            गर नहीं हैं मेरे असआर में मानी न सही।
ग़ालिब साहब बहुत जल्द सोहरत की बुलंदियों पर पहुँच गये। उन्होने उर्दू शायरी को एक नया आयाम दिया। वे उर्दू शायरी को तंग गलियारों हुस्न व इष्क, गुलो व बुलबुल में न घुट कर शायरी को नई पहचान दिया। ग़ालिब साहब के शेरों में दर्षन का झलक मिलता है। वे सूफी भी नहीं है। उनका यह शेर काबिे गौर है -
            ये मसायले तसव्वुफ ये तेरा बयान ग़ालिब,
            तुझे हम वली समझते जो न बादाखार होता।
    ग़ालिब साहब खर्चिले व उदार स्वभाव के थे, जिसके चलते अक्सर वे तंगहाल रहते। यहाँ तक की कभी-कभी पास में फूटी कौडी न होती। एक बार उधार की शराब पीन कर पैसा न देने पर इन पर मुकदमा चला। मुकदमा मुफ्ती सदरूद्दीन की अदालत में था। आरोप सुनकर इन्होने सिर्फ एक शेर सुनाया
            कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ,
            रंग लायेगी हमारी फाकामस्ती एक दिन।
इतना सुनना था कि मुफ्ती साहब ने अपने पास से रूपये निकाल कर दिये और ग़ालिब को जाने दिया।
एक बार रमजान के महिने में नवाब हुसैन ग़ालिब के पास बैठे थे। हस्बे मामूल ग़ालिब ने पान मंगवा के खाया, वहीं पर बैठे एक धार्मिक मुस्लमान ने सवाल किया कि आप रोजा नहीं है, तो ग़ालिब ने मुस्कुराकर जवाब दिया कि - ‘षैतान ग़ालिब है।’ ये खुद को नास्तिक मानते थें एक शेर है कि -
            हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,
            दिल को खुष रखने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है।
ग़ालिब का दाम्पत्य जीवन कभी सुखी नहीं रहा। वह दुःख की एक लम्बी कहानी है जिसमें नायक व नयिका वेदनाओं का बोझ ढ़ोते हुए जिन्दगी पूरा करते हैं। उमराव का अहंकार एक तरफ और ग़ालिब का अहंकार दूसरी तरफ। टकराव बढ़ता गया और दोनों कटते गयें। यही कारण था कि घर में दिल की छाया न पाने की वजह से ग़ालिब एक गायिका से दिल लगा बैठे और वह भी इनसे प्यार करने लगी। कई वर्षों तक ग़ालिब का उससे प्यार चलता रहा, अचानक उसकी मौत हो गयी जिससे कि ग़ालिब पूरी तरह से टूट गये। उसकी याद में इन्होने जो रचनाएँ की वे बेहद दर्द भरी हैं -
            तेरे दिल में गर न था आषो-बे-गम का हौसला,
            तू ने फिर क्यों की थी गम गुसारी हाय-हाय।
            उम्र भर का तू ने पैमाने वफा बाँधा तो क्या,
            उम्र भर नहीं है पायदारी हाय-हाय।।
एक बार ग़ालिब साहब बनारस आयें तो उन्होने कहा था कि अगर मैं जवानी में यहाँ आता तो बस जाता। सुबह-ए-बनारस और गंगा ने उन्हे काफी मोहा था। बनारस को ग़ालिब साहब ने हिन्दुस्तान का काबा कहा था। जिसका जिक्र इस शेर में है-
            इबादत खानाए नाकुसियां अस्त,
            हमाना काबाए हिन्दुस्तानां अस्त।
    (यह शंख वादकों का उपासना स्थल है। निष्चय ही यह हिन्दुस्तान का काबा है।)
जिन्दगी की तल्खीयों व मुसीबतों को झेलते-झेलते ग़ालिब साहब इतना सख्त हो गये थे कि ग़म उन्हे हिला न सका। वे बेहद स्वाभिमानी स्वभाव के शख्स थे। कभी-कभी बेहिसाब मुसिबतों का सामना करना पड़ता तथा हाताल उनपर हाबी होने लगता मगर उन्होने स्वाभिमान से कभी समझौता नहीं किया। सन् 1852 ई. में दिल्ली कालेज में फारसी का अध्यापक बनाने का प्रस्ताव भेजकर टामसन ने ग़ालिब साहब को अपने बंगले पर निलने को बुलवाया। टामसन ने कुछ ऐसी बात कही कि ग़ालिब साहब के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचा उन्होने नौकरी से इन्कार कर दिया। मुस्किलों से लड़ते-लड़ते एक दिन उनहोने लिखा कि -
            मुष्किलें मुझपर पड़ी इतना की आसां हो गर्यीं।
    तत्कालीन मुगल बादषाह बहादुर शाह जफर खुद शायर थे तथा उनके नजदीक शायरों का कद्र था सो उन्होने ग़ालिब साहब की मुफलीसी पर तरस खाकर उन्हे तैमूर खानदान का इतिहास फारसी में लिखने का काम सौंपा। इसी बीच जफर साहब के उस्ताद जौक का इन्तकाल हो गया और वे अपना कलाम ग़ालिब को दिखाते, इसपर ग़ालिब ने एक दिन कहा कि -
            हुआ है शाह का मुसाहिब फिरा है इतराता,
            वरना इस शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है।
ग़ालिब साहब पर जफर का बहुत करम था इसलिए वे अक्सर उनकी शान में कसीदे पढ़ते रहते। एक बार अर्ज किया कि -
            ग़ालिब वजीफाख्वार हो दो शाह को दुआ,
            वो दिन गये कि कहते थे कि नौकर नहीं हूँ मैं।
बहादुर शाह जफर को कैद कर रंगून भेज दिया गया और ग़ालिब का पेंषन भी बन्द हो गया। इस बात का जिक्र ग़ालिब ने अपनी किताब दस्तंबू में भी किया है। इन्होने सोचा कि शान्ति होने पर पेंषन चालू होगा मगर ऐसा न हो सका। तब ग़ालिब ने चापलूसी वाला रास्ता अख्तियार किया और महारानी विक्टोरिया के शान में कसीदे गढ़ कर दिल्ली के अधिकारीयो के जरिये भिजवाया। फिर भी बात न बनी और 17 मार्च 1857 को दिल्ली के कमिष्नर ने यह लिख कर वापस कर दिया कि इसमें कोरी प्रषंसा है। हालात दिन-ब-दिन दुष्वार होते गये, यहाँ तक की घर के कपड़े-लत्ते बेचकर दिन कट रहे थे। एक पत्र में उन्होने अपने जीवन के निराषा को लिखा कि ‘‘ 53 माह का पेंषन। तकर्रूर इसका बतजवीज लार्ड लेक व बमंजूरी गर्वनमेंट और फिर न मिला है न मिलेगा। खैर, एहतमाल है मिलने का। अली का बन्दा है। उसकी कसम कभी झूठ नहीं खाता। इस वक्त कल्लू (वफादार सेवक) के पास एक रूपया सात आना बाकी है। बाद इसके न कहीं कर्ज की उम्मीद है, न कोई जिंस रेहन व बयेक काबिल।’’
    काफी निराष हो कर दिल्ली से बाहर जाने का निर्णय लिया। खैर तय हुआ बीबी व बच्चे लोहारू जायें। वे अकेले रहना पसन्द किये और लिखा -
            रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो।
रामपुर के नवाब, गोपाल दास तफ्ता और महेष दास जैसे करीबी दोस्तो के सहारे जिंदगी की आखिरी शाम ढ़लती रही। ग़ालिब दिन-ब-दिन टूटते चले गयें। पहले नातवाँ थे फिर नीमजान हुए। पेट की अतडियां मरोडे खाने लगीं। हालात ऐसे पड़े कि दो-चार सतर लिखने के बाद हाथ खुद-ब-खुद रूक जाते। फिर वह शाम आयी जिसने ग़ालिब साहब के इकहत्तर साल की लम्बी तड़प को खत्म कर उन्हे मौत के आगोष में हमेषा के लिए सुला दिया। 15 फरवरी 1869 की दोपहर ने इस अजीम षायर को हमेषा के लिए मौत की गहरी नींद की आगोष में ले लिया। नींद की ऐसी प्यास जो कभी खत्म न होने वाली थी।
    ग़ालिब अपने जमाने में मीर तकी मीर के काफी चाहने वालों में थे। इन्होने उनके बारे में भी काफी लिखा है। जिंदगी के इकहत्तर साल के लम्बे सफर में ग़ालिब ने उर्दू और फारसी की बेइनतहा खिदमत कर खूब षोहरत कमाया। अपनी तेजधार कलम की बदौलत उनहोने उर्दू शायरी को नया मुकाम, नई जिन्दगी और रवानी दी। अगर बात उर्दू अदब की हो और जिक्र ग़ालिब का ना हो तो बेमानी है। अदब की दुनियाँ में जहाँ शेक्सपीयर, मिल्टन, टैगोर, तुलसदास का मुकाम है ग़ालिब भी वहीं नुमाया हैं। उनकी दीवान विष्व साहित्य के लिए अनमोल धरोहर है। उर्दू अदब में भले ही अनकों शायर हुये हों मगर ग़ालिब के कलाम पढ़ने व सुनने वालों के दिलों की कैफियत बदल देती है। ग़ालिब के कलाम आज भी गंगा के रवानी की तरह लोगों के जेहन व जुबान पर कल-कल करती हुई बह रही है तथा हमेषा लोगों के मष्तिस्क पटल पर जिन्दा रहेंगी।
                        हम आह भी भरते हैं तो हो जाते बदनाम,
                        वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती।