Sunday 27 November 2011

सम्मान


रामकृस्ण सहस्रबु़द्धे को मैथिली शरण पुरस्कार

प्रतिवर्स की भॉंति इस वर्स  भी नई दिल्ली में राजभासा कार्यान्वयन समिति की बैठक रेल भवन में आयोजित की गई । इस अवसर पर आयोजित समारोह में हिन्दी के प्रचार प्रसार में योगदान के लिये विभिन्न क्षेत्रों/मण्डलों के अधिकारिेयों को सील्ड एवं नकद पुरस्कारों से सम्मानित किया गया ।

      समारोह में कहानी/उपन्यास के लिये प्रेमचन्द पुरस्कार एवं काव्य क्षेत्र में लेखन के लिये मैथिली सरण पुरस्कार से रेलकर्मी लेखकों की पुस्तकों के लिये पुरस्कार दिये गये । इसी क्रम में पू० म० रे० के मुगलसराय मण्डल में डीजल सेड में वरीय अनुभाग अभियन्ता श्री रामकृस्ण सहस्रबु़द्धे को कविता संग्रह  'अनुभव कोरा नहीं होता ' के लिये प्रथम पुरस्कार मैथिली शरण पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।
      ज्ञातव्य हो कि श्री सहस्रबुद्धे अहिन्दी भासी रचनाकार हैं, अभियन्त्रण सेवा से जुडे हैं। उनकी डेढ सौ से अघिक रचनायें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकासित हो चुकी हैं। इनके बालगीत संग्रह 'संकल्प' निबन्ध संग्रह 'चिन्तन के क्षण' और 'लोकतन्त्र-लोकमत-स्वदेसी' तथा 'एकात्म मानववाद-एक विस्लेसण' चर्चित कृतियॉं हैं । इसके अतिरिक्त 'चाहता हूं चुप रहूं' गीत संग्रह सीध्र प्रकासित हो रहा है ।

Saturday 19 November 2011

धर्म

सांप्रदायिक सदभाव की मिसाल है देवाशरीफ


  धर्म और जाति के नाम पर देश के दूसरे हिस्सों में भले ही खून-खराबा होता हो,मगर देवा शरीफ जाने वालों को देखकर यही कहा जा सकता है कि आज भी वारिसे-पाक की मुहब्बत का पैगाम लोगों के दिलों में जिन्दा है और ता-कयामत जिदां रहेगा। नफरत की दीवारों को गिराकर आम अवाम के दिलों में मुहब्बत की रोशनी जलाने वाले महान फकीर हाजी सैयद वारिस अली शाह की मजार देवा शरीफ हिंदू-मुस्लिम एकता और आपसी भाईचारे की मिसाल बन गई है। जहॉ एक और देश-विदेश से विभ्भन धर्मों को मानने वाले लोग हजारों की संख्या में आते है,श्रद्धा सुमन अर्पित कर मन्नतें मांगते है वहीं दूसरी ओर दुनिया के तमाम हिस्सों में फैली नफरत, हसद बुग्ज और तअस्सुब (भेदभाव) को परस्त कर रहें है। सरकारी वारिसें पाक का मानना था कि चमार हों या खाकरूब (भंगी) हो हमारे यहॉ सब बराबर है, जो हमसे मुहब्बत करे वह हमारा है। यहीं वह कशिश है जो आज भी यहॉ सबको खीचं लाती है और लगता रहता है भावनाओं और आस्थाओं का अनुठा संगम। सरकार वारिसे पाक रमजानुल्लाह मुबारक की पहली तारीख को देवा शरीफ (बारबंकी) में पैदा हुए जब आप अपनी मॉ के शिकम में थे, इसी बीच आपके वालिद सैयद कुरबान अली शाह का इंतकाल हो गया। हजरत ईमाम हुसैन की 26वीं पुश्त में आप इमाम मूसा काजिम की नस्ल से काजमी सैयद है। आनके जद्दे अली आला सैयद असरफ अबी तालिब जो अपने वक्त के आला बुजुर्ग थे, पूरे परिवार के साथ नेशापुर से हिजरत करके हिन्दुस्तान तस्रीफ लाये और कस्बा रसूलपुर-किन्जतूर जिला बारबंकी में आबादी के बाहर सकूनत अखतियार कर ली। आप के सात पुश्त रसूलपुर-किन्तूर में गुजरी और 1411हिजरी में आपकी 8वीं पुश्त में सैयद अब्दुल अहद रह नें अपनी सकूनत किन्तूर से देवा शरीफ मुताकिल कर ली। 1141हिजरी सैयद मरीन शाह की पैदाइस हुई जो आप के पर दादा थे। जब आपकी उम्र तीन साल की हुई, तो आप की वालिदा का भी इन्तकाल हो गया। इस हादसे बाद भी आप की परवरिस अपकी दादी सहिबा ने फरमायी हाफिज दीदार शाह वारिसे की किताब पैगाम-ए-मुहब्बत के अनुसार जब वारिसे पाक की उम्र पाचॅ साल की हुई तो घरेलू तालीम के बाद आपकी दादी ने जाहिरी तालीम के लिए आपको अपने धरे तरकत हजरत अमीर अली शाह के पास भेजा। उन्होंने आप को देखकर फरमाया की यह साहबजादे तो तमाम मख्लुके खुदा के रहनुमा होंगे और तमाम आलम में इनका डंका बजेगा।
   आपके बचपन का आलम था कि दादी साहिबा के सन्दूक से अशर्फि रूपये जो मिल जाता उससे निकाल लाते और (लुकई) हलवाई को देकर कहते की हम को इसका एक बतासा बना दो। वह सीनी के बराबर बताशा बना देता तो आप उसे तोड़तोड़ के बच्चों में तकसीम कर देते इसकी खबर जब दादी साहिबा को मिलती तो वह नाराज होने के बजाय खुश होती। आप अक्सर घर से गायब हो जाते तो घर वालों को फिक्र होती लेकिन वह खुद घर भी वापस आ जाते। एक दिन तंग आकर दादी साहिबा ने आपको कोठरी में बंद कर दिया। कुछ देर बाद आप कोठरी से गायब हो गये जब तलाश हुई तो एक बाग में खेलते मिले। अक्सर घर से रूपया अशर्फि लेकर गरीब को दे देते है और मुहताजों को अपने पहने हुए कपड़े भी तकसीम कर देते। खासकर बच्चों को पास बैठाकर खेल के बहाने दुनिया की हिकारज और खुदा की मुहब्बत की हिदायत फरमाते थे। आप की उम्र जब लगभग सात साल की हुई तो आपकी दादी का इन्तकाल हो गया। जब आपकी उम्र खादिम अली शाह ने भी 14 सफर 1253 हिजरी को दुनिया की निगाहों से पर्दा फरमा लिया। इसके  बाद बुजुर्गाों के इफिके राय से आपको खलीफा बनाया गया। दरअसल आप मंजिले इश्के तय का रहे थे, इस लिये आप रश्मी शान- शौकत के कायल ना थे। आप फरमाते थे पिगडी विगडी झगडा है। हम नहीं जानते। असी के साथ आप ने देवा शरीफ में अपने घर का सारा सामान गरीब मिसकीनों में तक्सीम कर दिया और बाप-दादा की सारी जायदाद बॉट दी और मालिकाना हुकूक के सारे के सारे कागजात तालाब में डूबो कर दुनिया के झमेलों से छुटकारा पा लिया लखनऊ चले आये। अभी आप की उम्र 14 साल की ही थे आप हज़ के लिए जाने की सोंच रहे थे कि आप के पारे तरिकत हजरत खादिम अलिसा की ओर से बसारत हुई की तुम सफर अख्तियार करो आप लखनऊ से चलकर उन्नाव, कानपुर, इटॉवा, शीकोहाबाद, आगरा,जयपुर होते हुये अजमेर शरीफ पहुॅचे, इसके बाद यहॉ से चलकर नगौर, हरदावल और दीगर शहरों में कवाम करते हुए बंबई पहुॅचे, इस दौरान बहुत सारे कौम आपके मुरीद हो गये।बंबई कयाम के दौरान मुरीदों ने सफर का सामान साथ करना चाहा, मगर आपने कतई पसंन्द नही किया और ना ही किसी को साथ लिया। बडी़ सादगी से अपना कंबल तन्हा उठा कर जहाज पर सवार हो गये। मक्का मोअज्जमा पहुच कर अपने हज के अरमान अदा किए और मदीना शरीफ के लिए रवाना हो गये। रौजए रसूले पाक पर हाजरी दी और जियारत किया जियारत के बाद काफी दिनों तक मदीना शरीफ में कयाम फरमाया और इस दौरान तमाम मोकद्दस मजारात पर हाजिरी दी। आप ने अपनी ज्यादातर जिंदगी सफर में गुजारी। इस सफर और सैयाहत के दौरान आपने समूची दुनिया को बिला तफरीके मजीब और मिल्लत यानी बिना भेदभाव के तमाम दुनियाए आलम को मुहब्बत इंसानियत खुदापरस्ती का पैगाम पहुॅचाया।
    आपने अपनी दिखावा जिंदगी में इस दुनियाए आलम को वह जामे मुहब्बत अता फरमाई, जो आज भी बेमिसाल है और सरजमीनें देवा शरीफ पर हिन्दू-मुस्लिम एकमा के रूप में दिखायी पड़ रही है। असपने 1223 हिजरी यानी सन् 1905 में 7 अप्रैल दिन जुमा सुबह 4 बजकर 13 मिनट पर इस दुलियाए फानी से पर्दा फरमा लिया। अपनी जाहिरी जिंदगी में आपने ऐसी मिसाल बनाई और ऐसा लोहे अमल पेरूा किया कि आज भी लोग मजहब के दायरे से बाहर आकर आपकी मजार पर हाजरी देते है उर्स के दौरान यहॉ के गंगा-जमुनी तहजीब लोगों को मंत्र मुग्ध कर देती है। यही कारण है कि आपके मुरीदों में मुसल्मानों के अलावा सभी धर्म के मानने वाने शामलि है। देवा शरीफ में मौजूद वारिसे पाक की मजार हिन्दू-मुस्लिम एकता और सद्भाव की अनूठी मिसाल है। देश के तमाम हिस्सों में धर्म और जाति के नाम पर भले ही खून-खराबा होता हो, मगर यहॉ पर आने वाले लोगों को देख कर यही कहा जा सकता है कि आज भी वारिसे पाक की मुहब्बत का पैगाम लोगों के दिलों में जिंदा है और ता-कयामत जिंदा रहेगा।

संत कबीर नगर से कमालुद्दीन सिद्दीकी 

Friday 18 November 2011

गजल

आजकल 
 

आजकल के लोगों में वफा क्यों नहीं मिलती
जख़्म तो मिलते हैं मगर दवा नहीं मिलती।

रहजनों से तो रोज मिलते हैं
राह सीधा जो दिखाये वो रहबरी नहीं मिलती।

वक्त की तल्खीयों से कुम्हला गयी है जिन्दगी
आज के इस दौर में हंसी फिजा क्यों नही मिलती।

लोग, लोगों का खून पीते हैं फिर भी प्यास नहीं बुझती
इनको जो मोअत्तर करे वो चश्म-ए-शाही क्यों नहीं मिलती।

प्यार आज छलावा है, फरेब है, धोखा है
प्यार जिन्दगी हो ये सदा क्यों नहीं मिलती।

भर दे ‘सागर’ जो दिल के आपसी दरारों को
आजकल वो दिल्लगी क्यों नहीं मिलती?

एम.अफसर खां सागर

Thursday 17 November 2011

गजल

 
 
1
 लोग लाचार हैं क्यूं ,जिंदगी बाजार हैं क्यूं
हर काई खुद ही यहां बिकने कों तैयार हैं क्यूं

बिखड़े-बिखड़े से हैं लोग, टुटा हर ईक रिश्ता
बस दिखाने के लिए, इतना प्यार हैं क्यूं

देगें मुझकों धोखा ,ये यकीं हैं मुझको
जाने फिर भी उनपे इतना एतबार हैं क्यूं

ख्वाब टुटेगें सभी से जानता हूं मैं
न जाने देखने कों आंखें बेकरार हैं क्यूं

दर्द चीखें जो, भुख जो मुहं खोलें
इंकलाब वालें तो वो गुनहगार हैं क्यूं

लोग लाचार हैं
क्यूं, जिंदगी बाजार हैं क्यूं

2

इस अजनबी शहर में बेगाने लगें हैं लोग
अब नाम पता पुछकर भगाने लगें हैं लोग

दर्द सहकर भी वो मुस्कुराते हैं
इस कदर यहां के दीवाने लगें हैं लोग

कौन जाने जमीर की अहमियत जिस्मों की बाजार में
सब के सब झूठ दिखाने लगें हैं लोग

ये क्या हमें जख्म मिला और तड़प उठें
चोट खाये नहीं कि सहलाने लगें हैं लोग

जबसे चली है इस शहर में इश्क की हवा
बेवजह अब सभी मुस्कुराने लगें हैं लोग।

सरोज

Wednesday 16 November 2011

honour


Akshitaa honoured as youngest ‘National Child Award’ Winner 


   Coming events cast their shadows before. All that's required afterwards is nurturing of talent.  It’s come true for Akshitaa, a 4 year 8 months old girl. Studying in KG-I grade of Carmel Sr. Secondary School, Port Blair, Akshitaa's exceptional performance as an artist and as a blogger at such a young age, has earned her the ‘National Child Award’ for Exceptional Achievement, 2011.  The award  was presented by Hon'ble Smt. Krishna Tirath, Minister of State for Women and Child Development, Government of India on 14th November, 2011 on Children's Day at  Vigyan Bhavan, New Delhi.

   It is mentionworthy that The Government of India instituted the National Child Awards for Exceptional Achievement in 1996 to give recognition to children with exceptional abilities who have achieved outstanding status in fields such as academics, culture, arts, sports, music, etc. Children in the age group of 4-15 years are eligible for this award. This year Award was given to 27 Awardees from different states/UTs of India and Andaman-Nicobar Islands was represented by Akshitaa. Among 27 awardees Akshitaa was youngest child. Hon'ble Minister Smt. Krishna Tirath was so impressed to see such a young girl as Awardee and she blessed her wishes for her bright future. Akshitaa was not only youngest child to get the award but she also created history as  this was the first time when any award for exceptional performance as a blogger was given by Govt. of India. The Award carries a cash prize of Rs. 10,000/- , a silver medal and a Certificate.

   Akshita is a very small aged girl, but she has an inner self lit with creativity which shall be seen by her drawings and imagination in that. Not only that, she is a very famous blogger too. Being in a very small age It can’t think that she will write herself, but in her blog all the thoughts are given by Akshitaa and it is expressed in words by her parents. In the beginning, when her first drawing was seen by her parents they thought of it only as rubbish as every parents think. But they became serious when they got an appeal in her drawing. Her drawing is not only appreciated in India but also abroad. Her father Mr. K.K Yadav is Director of Postal Services in A&N islands and mother Mrs. Akanksha is a lecturer in College. Both of them are well known writers, poets & bloggers . Name of Akshitaa’s blog is – ‘Pakhi Ki Dunia’ (http://pakhi-akshita.blogspot.com). By this name itself someone can feel how the blog will be; and in real it is so sweet and exciting with  many colorful things  like her drawing, her curiosity to know everything, variety of knowledge etc. By seeing that so many people think whether it is possible for a 4 year 8 months old girl, but it’s true that talent is beyond any rule and regulation like age. It needs only the right way to express itself.

Saturday 12 November 2011

गजल

दिल की लगन
 
 
कैसी तुझसे लगी है दिल की लगन, एक तुम्हारे सिवा कुछ भी दिखता नहीं.  
कितने फूलों ने भँवरे को निमंत्रण दिया, एक तुम्हारे सिवा कोई जंचता नहीं.
खुशबूओं से रचा है बदन ये तेरा, 
तू रहती है फूलों की हर डाल में .
मुस्कुरा के  पलटकर जो देखोगी तुम, 
कैसे दिल चुप रहेगा इस हाल में.

तुम संभालोगे फिर भी न संभलेगा दिल, जोर इसपर किसी का भी चलता नहीं.
कैसी तुझसे लगी है दिल की लगन, एक तुम्हारे सिवा कुछ भी दिखता नहीं. 
तुमने छू ली है जबसे ऊँगली मेरी, 
मैं तब से नशे में हूँ डूबा हुआ.  
चाँद सूरज कभी मिल सकते नहीं, 
हम तुम मिले यह अजूबा हुआ.

वो दिल नहीं कोई पत्थर ही होगा, सुन के ये बात दिल गर धड़कता नहीं.
कैसी तुझसे लगी है दिल की लगन, एक तुम्हारे सिवा कुछ भी दिखता नहीं. 
तुझसी मीठी नहीं है ज़माने की बोली,
तंज़ होता है  इसके हर बात में.
कौन देता है ज़ख्मों को मरहम यहाँ?
लोग बैठे हैं लेकर नमक हाथ में.

दिल के ज़ख्मों को तुम न दिखाओ कभी, कौन होगा जो इस पर हँसता नहीं.
कैसी तुझसे लगी है दिल की लगन, एक तुम्हारे सिवा कुछ भी दिखता नहीं 
प्यार जब भी करो डूब कर के करो,
कुछ कमी इसमें फिर रहने न पाए.
तुमने पलकें भिगोई दिल को दुखाया 
कोई तुमसे ये फिर कहने न पाए.

सागर से साहिल का तुम इश्क देखो, है लहरों में डूबे  पर दम घुटता नहीं .
कैसी तुझसे लगी है दिल की लगन, एक तुम्हारे सिवा कुछ भी दिखता नहीं.
 
शकील जमशेदपुरी

Wednesday 9 November 2011

सम्मान

नन्हीं ब्लागर अक्षिता (पाखी) 'राष्ट्रीय बाल पुरस्कार' हेतु चयनित 


प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं होती. तभी तो पाँच वर्षीया नन्हीं ब्लागर अक्षिता (पाखी) को वर्ष 2011 हेतु राष्ट्रीय बाल पुरस्कार (National Child Award) के लिए चयनित किया गया है. सम्प्रति अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में भारतीय डाक सेवा के निदेशक और चर्चित लेखक, साहित्यकार, व ब्लागर कृष्ण कुमार यादव एवं लेखिका व ब्लागर आकांक्षा यादव की सुपुत्री अक्षिता को यह पुरस्कार 'कला और ब्लागिंग' (Excellence in the Field of Art and Blogging) के क्षेत्र में शानदार उपलब्धि के लिए बाल दिवस, 14 नवम्बर 2011 को विज्ञानं भवन, नई दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में भारत सरकार की महिला एवं बाल विकास मंत्री श्रीमती कृष्णा तीर्थ जी द्वारा प्रदान किया जायेगा. इसके तहत अक्षिता को 10,000 रूपये नकद राशि, एक मेडल और प्रमाण-पत्र दिया जायेगा.
यह प्रथम अवसर होगा, जब किसी प्रतिभा को सरकारी स्तर पर हिंदी ब्लागिंग के लिए पुरस्कृत-सम्मानित किया जायेगा. अक्षिता का ब्लॉग 'पाखी की दुनिया' (www.pakhi-akshita.blogspot.com/) हिंदी के चर्चित ब्लॉग में से है. फ़िलहाल अक्षिता पोर्टब्लेयर में कारमेल सीनियर सेकेंडरी स्कूल में के. जी.- प्रथम की छात्रा हैं और उनके इस ब्लॉग का सञ्चालन उनके माता-पिता द्वारा किया जाता है, पर इस पर जिस रूप में अक्षिता द्वारा बनाये चित्र, पेंटिंग्स, फोटोग्राफ और अक्षिता की बातों को प्रस्तुत किया जाता है, वह इस ब्लॉग को रोचक बनता है.

Friday 4 November 2011

thought


Root cause of rampant corruption

Rampant corruption is a prime concern for honest countrymen. On the eve of Holi while hundreds of wishes are flooding in , I find myself in a state of pensiveness. I know the issue of corruption is boggling my mind since the early morning. It is quite usual with me but I succeed often in controlling myself. Today I feel like expressing something to you and lighten myself.

Corrupt leaders, corrupt bureaucracy, corrupt doctors, corrupt engineers,corrupt corporates, corrupt judges, corrupt advocates, corrupt managers,corrupt journalists,corrupt businessmen, corrupt ..., corrupt ..., corrupt ..., and corrupt teachers. I have not given this list in any logical sequence, but the mention of teachers in the last of all is certainly a deliberated one.

I find myself almost fully confident that teachers are in the root of all this, because all the above ranks are taught and tutored by the teachers... the teachers I believe ought to take  responsibility for producing such conflict personalities.They have been utterly failing in inculcating morallity into the personality of their pupils. Our present socio-political system has for the last four decades very cautiously tried to corrupt the teaching communities from top to bottom, so that the game of corruption can easily be played uninterrupted.

Our's is a country in which the teachers used to be king makers, to whom our kings felt pride in sending their sons for getting practical trainings and receive learnings, before whom the kings and their courtmen would bow in reverence. The GURUS would impart knowledge without any rewards ; as no reward was greater than the honour and respect they got from the ruling class and the society at large.

Only one example of a hurt teacher , Chanakya , would suffice to prove that a single GURU is enough to demolish a corrupt Government. I wonder , where these Gurus are reclusing thesedays ? Where has gone their prestine power ?. The Surveys of today have the answer : the Department of Education now ranks within first three as far as the issue of corruption is concerned. One can understand how a teacher brought up, taught, trained, appointed, and forced to work in a corrupt environment may be able to develop his own personality strong enough to influnce his pupils, his society, his system and his environment ?.  Where the receiving end is sick , powerless and unequipped, how the transmission unit will work ? And where the transmission unit itself is weak how can it reach the receiving end properly ? Our educational system seems to have been failing in producing the competant human resourse needed for the country for the present.

I am a teacher for the last 35 years . Many of my colleagues may not agree with my views , many will agree to disagree also , and many will not agree at all. But to agree , one would require to have courage. Those who have a little introspection would feel that a teacher  can not evade this important responsibility of preparing infrastructure for the country. Teachers  are failing in their this vital role and they have started sailing in the same boat in which the corrupt lots are seated with heads high and sights low.

Since 1947, education has been one of the most neglected field by the governments, both at the central as well as the states levels. We have failed in our understandings that education and literacy mission are two different things. Today , most of the high school , intermediate and graduation level students are not able to read, write and speak out their subject lessons correctly , with confidence and command. Most of the B.Ed., LL.B.,Ph.D., today are unable to write correctly these degrees in full forms.. ( those who can will kindly excuse me, because I do never mean to let down any body ).

 In a country wherein teachers become sick, the whole Nation becomes sick. We are now a sick nation today, governed by sickmen, where people commonly tolerate the whole parliamentary session going waste due to opposition bycott, demanding fair probe by a parliamentary committee; and in the next session the wise govt. yields to the demands. The corrupts have started to challenge today to prove their corruption. The anti corruption agencies have become puppet in the hands of the machinery of the govt. and our judicial system is busy in relieving rail tracks, roadways, instead of passing fast judgements for those who are accused of anti-social and anti-national activities. Those accused of such activities are freely roaming on the streets and finally succeeding in reserving a berth in the present political system. The Election Commission, the Vigilance Agencies , etc.all looking helpless , as if we are living not in a DEMOCRACY but in a DEMONOCRACY.

Historians have on record that such committees and commissions have been constituted in the past as well ; but their findings have never been made transparent to the common public who make the Government. So we the people of India , that is BHARAT, have a significant role in making our Government , but unfortunately have no role in the doings of Government once made. When top politicians , bureaucrats, technocrats and others are now neck deep in the rotten system , it is they who are to be blamed for , because the tools they have supplied to the roots have become rusted, and one can not help when the policeman becomes a thief.

The journalists , who claim to be  the FOURTH COLUMN , can play important in such situations , but alas ! their role too is partition ridden , they are lathi-charged , purchased, used in favour of interests.



 Dr.Jairam Singh
   Sr.Historian

Wednesday 2 November 2011

फीचर

मदर टेरेसा यानी मानवता की मां




विश्व में मानवता की मां 'मदर टेरेसा' के नाम से मशहूर हुई। कितने हैं जो
उनकी तरह गरीबों को गले लगाते हैं ? दु:खियारों की मरहम-पट्टी करते है ?
दरअसल वे (मदर टेरेसा) मानवता की मसीहा थीं। वे जीवन के नरक से निवासियों
का निरंतर उद्धार करती रहीं। मदर मर कर भी अमर हैं। युगोस्लाविया के
स्कोपिये में 2६ अगस्त, 1910 में आग्नेस का उनका जन्म हुआ। साधारण
व्यावसायिक परिवार की आग्नेस ने बारह वर्ष की उम्र में ही मिशनरी बनाने
का सपना संजो लिया। अठारह साल की होने पर आग्नेस ने लॉरेटो की आयरिश शाखा
की ननों में शामिल होना पसंद किया। 1937 में आखिरकार प्रतिज्ञाबद्ध हुई।
वे उस समय कोलकाता के सेंट मेरी स्कूल में लड़कियों को भूगोल पढ़ाती थीं।
स्कूल के पड़ोस में ही मोतीझील बस्ती की झोपड़पट्टियां थीं, लेकिन वे चाहकर
भी चहारदिवारी के बाहर नहीं निकल पाती थीं।
वे 10 सितंबर 1946 को दार्जिलिंग जा रही थीं, तभी उन्हें अपने अंतस की
आवाज सुनाई पड़ी - तुम्हारा जन्म तो गरीब से गरीब की सेवा करने के लिए हुआ
है। उन्हें दो साल तक काफी जद्दोजहद करनी पड़ी और 1948 में कहीं जाकर
कोलकाता की बस्तियों में सेवा करने की चर्च से आज्ञा मिल पायी। उनके
व्यक्तिगत जीवन में क्रांति हो गयी। उन्होंने नन की वेशभूषा छोड़ नीली
धारियों वाली सादी साड़ी पहन ली और मरीजों की मरहम-पट्टी सीख ली। उसी साल
बड़ा दिन (पच्चीस दिसंबर) के पहले ही बेसहारा बच्चों के लिए स्कूल खोल
दिया। उनसे प्रेरित हो सेंट मेरी स्कूल की उनकी शिष्याएं भी उनसे जुड़
गयीं। बस्तीवासियों की तरह मां और शिष्याएं आचरण ही नहीं करतीं, वही
जिंदगी जीतीं। सबको खिलाने-पिलाने के बाद जो कुछ बचता-खातीं-पीतीं।
धीरे-धीरे मिशनरीज आफ चैरिटी का समुदाय बसता बढ़ता चला गया। 1950 में
उनके नि:स्वार्थ सेवा कार्यो के मद्देनजर पोप की स्वीकृत मिल गयी और
मिशनरीज आफ चैरिटी लड़खड़ाने से बचकर पटरी पर आ गई।
कोलकाता में मां के निर्मल हृदय-संस्थान की स्थापना के पीछे मार्मिक घटना
है। उन्होंने 1952 में देखा कि एक औरत रास्ते के किनारे पड़ी है। इतनी
लाचार कि जीते जी उसकी आधी देह चूहों ने कुतर डाली है और उसके घावों में
कीड़े बिलबिला रहे हैं। उसे अस्पताल में भर्ती करवाने में मां के पसीने
छूट गये थे। मर्माहत मां ने कालीघाट के मंदिर के समीप एक कमरे की
व्यवस्था की और उसी कमरे में 'निर्मल हृदय' नामक संस्था ने जन्म लिया।
निर्मल हृदय में दम तोड़ते बेसहारा फुटपाथियों की सेवा-सुश्रुषा की शुरूआत
हुई। आज के सुव्यवस्थित निर्मल हृदय को देखकर कल्पना भी नहीं की जा सकती
कि निर्मल हृदय खपरैल वाली बारादरी जैसा था, जहां कभी कालीघाट के
तीर्थयात्री ठहरा करते थे। कोलकाता महानगर जैसे निर्मल हृदय संसार भर में
फैल गये हैं, जहां किसी को निराश्रित महसूस नहीं होता। सत्तर से ज्यादा
कोढि़यों के ठिकाने हैं, जिन्हें सहारा ही नहीं मिलता, सांत्वना भी मिलती
है।  उनके बुझते दिलों में आशा के दीये जलाये जाते हैं। अनेक अनाथालय हैं,
जहां अनाथ बच्चों को आश्वस्त किया जाता है कि उनके सिर पर भी किसी का हाथ
है।
ढाई हजार साल पहले गौतम बुद्ध ने जिस सच्ची करुणा का सूत्रपात किया था,
उसका अत्याधुनिक संस्करण मां टेरेसा के संस्थान हैं। 'मिशनरीज आफ चैरिटी'
में मां समाधिस्थ हैं मानो सेवा कार्यो की सक्रियता में सन्नद्ध। 'निर्मल
हृदय' में अंतिम सांस लेते हिंदू को गंगाजल मिलता है, मुस्लिम पवित्र
कुरान की आयतें सुनता है और ईसाइयों का यथोचित अंतिम संस्कार होता है।
अनाथालयों के बच्चे अपने संप्रदाय से ही जुड़े रहते हैं। मां के अनेक ऐसे
संस्थान भी हैं, जहां पोप-अनुमोदित परिवार-नियोजन सिखाया जाता है।
गर्भपात को मां गंभीर अपराध मानती रहीं और 'कैथोलिक मत' का हवाला देतीं।
मां का दृढ़ विश्वास था कि गरीब दुरदुराएं नहीं जायें तो वे भी गरीब नहीं
रहेंगे। मां दकियानूस नहीं, दरियादिल थीं। उनके आधुनिक उपकरणों के उपयोग
का तरीका भी अनोखा था। 1965 में पोप पाल छठे अपनी लिंकन कांटिनेंटल
लियूजीन कार मां को भेंट कर गये थे। मां ने फौरन लॉटरी करवायी। इस प्रकार
लाखों की कमाई सेवा कार्यो के लिए संभव हो गयी। 1973 में इंपीरियल के.
निकल ने अपना एक पुराना रोगन कारखाना मां को भेंट कर दिया, मां ने उसमे
मनोरोगी स्त्रियों, बीमारों और अनाथ बच्चों का आश्रयस्थल बना डाला।
कोलकाता की अलिया-गलियों से कच्चे नारियल का कचरा उठाकर उन्होंने 'लघु
कोपरा' उद्योग कायम करा दिया। उनके सेवा कार्य उनकी महानता, विनम्रता,
सहृदयता की खुली किताब हैं। आज की कराहती मानवता मदर को शिद्दत से तलाश
रही है, जिनका कोई नहीं मां उनके लिए स्नेह का संबल थीं, सहारा थीं। मां
टेरेसा के सूरज का अस्त नहीं होने वाला। उनकी प्रेरणा का प्रकाश पुंज
मानवता को सदा-सर्वदा रौशन करता रहेगा।

 शंकर जालान