Tuesday, 13 December 2011

एक ट्रेजडी कथा


बीमार अदम गोंडवी और फासिस्ट हिंदी लेखक
तो आमीन अदम गोंडवी, आमीन!: क्या आदमी इतना कृतघ्न हो गया है? खास कर हिंदी लेखक नाम का आदमी। इसमें हिंदी पत्रकारों को भी जोड़ सकते हैं। पर फ़िलहाल यहां हम हिंदी लेखक नाम के आदमी की चर्चा कर रहे हैं क्योंकि पूरे परिदृश्य में अभी हिंदी पत्रकार इतना आत्मकेंद्रित नहीं हुआ है, जितना हिंदी लेखक। हिंदी लेखक सिर्फ़ आत्म केंद्रित ही नहीं कायर भी हो गया है। कायर ही नहीं असामाजिक किस्म का प्राणी भी हो चला है। जो किसी के कटे पर क्या अपने कटे पर भी पेशाब करने को तैयार नहीं है। दुनिया भर की समस्याओं पर लफ़्फ़ाज़ी झोंकने वाला यह हिंदी लेखक अपनी किसी भी समस्या पर शुतुर्मुर्ग बन कर रेत में सिर घुसाने का आदी हो चला है। एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। ताज़ा उदाहरण अदम गोंडवी का है।
अदम गोंडवी की शायरी में घुला तेज़ाब समूची व्यवस्था में खदबदाहट मचा देता है। झुलसा कर रख देता है समूची व्यवस्था को। और आज जब वह खुद लीवर सिरोसिस से तबाह हैं तो उनकी शायरी पर दंभ करने वाला यह हिंदी लेखक समाज शुतुरमुर्ग बन गया है। अदम गोंडवी कुछ समय से बीमार चल रहे हैं। उनके गृह नगर गोंडा में उनका इलाज चल रहा था। पैसे की तंगी वहां भी थी। पर वहां के ज़िलाधिकारी राम बहादुर ने प्रशासन के खर्च पर उनका इलाज करवाने का ज़िम्मा ले लिया था। सिर्फ़ इलाज बल्कि उनके गांव के विकास के लिए भी राम बहादुर ने पचास लाख रुपए का बजट दिया है। लेकिन जब गोंडा में इलाज नामुमकिन हो गया तो अदम गोंडवी बच्चों से कह कर लखनऊ गए। बच्चों से कहा कि लखनऊ में बहुत दोस्त हैं। और दोस्त पूरी मदद करेंगे। बहुत अरमान से वह गए लखनऊ के पीजीआई। अपनी रवायत के मुताबिक पीजीआई ने पूरी संवेदनहीनता दिखाते हुए वह सब कुछ किया जो वह अमूमन मरीजों के साथ करता ही रहता है। अदम को खून के दस्त हो रहे थे और पीजीआई के स्वनामधन्य डाक्टर उन्हें छूने को तैयार नहीं थे। उनके पास बेड नहीं था। अदम गोंडवी ने अपने लेखक मित्रों के फ़ोन नंबर बच्चों को दिए। बच्चों ने लेखकों को फ़ोन किए। लेखकों ने खोखली संवेदना जता कर इतिश्री कर ली। मदद की बात आई तो इन लेखकों ने फिर फ़ोन उठाना भी बंद कर दिया। ऐसी खबर आज के अखबारों में छपी है। क्या लखनऊ के लेखक इतने लाचार हैं? बताना ज़रूरी है कि लखनऊ से गोंडा दो ढाई घंटे का रास्ता है। गोंडा भी उन्हें देखने कोई एक लेखक उन्हें लखनऊ से नहीं गया। हालांकि लखनऊ में करोड़ों की हैसियत वाले भी एक नहीं अनेक लेखक हैं। लखपति तो ज़्यादातर हैं ही। यह लेखक अमरीका और उसकी बाज़ारपरस्ती पर चाहे जितनी हाय तौबा करें पर बच्चे उनके मल्टी नेशनल कंपनियों में बड़ी बड़ी नौकरियां करते हैं। दस बीस हज़ार उनके हाथ का मैल ही है। लेकिन वह अदम गोंडवी को हज़ार पांच सौ भी देना पड़ जाए इलाज के लिए, इसलिए अदम गोंडवी के बच्चों का फ़ोन भी नहीं उठाते। देखने जाने में तो उनकी रूह भी कांप जाएगी। अब आइए ज़रा साहित्य की ठेकेदार सरकारी संस्थाओं का हाल देखें।
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के कार्यकारी उपाध्यक्ष का बयान छपा है कि अगर औपचारिक आवेदन आए तो वह विचार कर के पचीस हज़ार रुपए की भीख दे सकते हैं। इसी तरह उर्दू अकादमी ने भी औपचारिक आवेदन आने पर दस हज़ार रुपए देने की बात कही है। अब भाषा संस्थान के गोपाल चतुर्वेदी ने बस सहानुभूति गीत गा कर ही इतिश्री कर ली है। अब इन ठेकेदारों को यह नहीं मालूम कि अदम इलाज कराएं कि औपचारिक आवेदन लेकर इन संस्थानों से भीख मांगें। और इन दस बीस हज़ार रुपयों से भी उनका क्या इलाज होगा भला, यह इलाज करवाने वाले लोग भी जानते हैं। रही बात मायावती सरकार की तो खैर उनको इस सबसे कुछ लेना देना ही नहीं। साहित्य संस्कृति से इस सरकार का वैसे भी कभी कोई सरोकार नहीं रहा। वह तो भला हो मुलायम सिंह यादव का जो उन्होंने यह पता चलते ही कि अदम बीमार हैं और इलाज नहीं हो पा रहा है, खबर सुन कर अपने निजी सचिव जगजीवन को पचास हज़ार रुपए के साथ पीजीआई भेजा। पैसा पाते ही पीजीआई की मशीनरी भी हरकत में गई। और डाक्टरों ने इलाज शुरू कर दिया। मुलायम के बेटे अखिलेश का बयान भी छपा है कि अदम के पूरे इलाज का खर्च पार्टी उठाएगी। यह संतोष की बात है कि अदम के इलाज में अब पैसे की कमी तो कम से कम नहीं ही आएगी। और अब यह जान कर कि अदम को पैसे की ज़रूरत नहीं है, उनके तथाकथित लेखक मित्र भी अब शायद पहुंचें उन्हें देखने। हो सकता है कुछ मदद पेश कर उंगली कटा कर शहीद बनने की भी कवायद करें। पर अब इस से क्या हसिल होगा अदम गोंड्वी को? अपने हिंदी लेखकों ने तो अपना चरित्र दिखा ही दिया ना!
अभी कुछ ही समय पहले इसी लखनऊ में श्रीलाल शुक्ल बीमार हो कर हमारे बीच से चले गए। वह प्रशासनिक अधिकारी थे। उनके पास पैसे की कोई कमी नहीं थी। सो इन लेखकों ने उनकी ओर से कभी आंख नहीं फेरी। सब उनके पास ऐसे जाते थे गोया तीर्थाटन करने जा रहे हों। चलते चलते उन्हें पांच लाख रुपए का ज्ञानपीठ भी मिला और साहित्य अकादमी, दिल्ली ने भी इलाज के लिए एक लाख रुपए दिया। लेकिन कुछ समय पहले ही अमरकांत ने अपने इलाज के लिए घूम घूम कर पैसे की गुहार लगाई। किसी ने भी उन्हें धेला भर भी नहीं दिया। तो क्या जो कहा जाता है कि पैसा पैसे को खींचता है वह सही है? आज तेरह तारीख है और कोई तेरह बरस पहले मेरा भी एक भयंकर एक्सीडेंट हुआ था। कह सकता हूं कि यह मेरा पुनर्जन्म है। यही मुलायम सिंह यादव तब संभल से चुनाव लड़ रहे थे। उनके कवरेज के लिए हम जा रहे थे। उस अंबेसडर में हम तीन पत्रकार थे। जय प्रकाश शाही, मैं और गोपेश पांडेय। सीतापुर के पहले खैराबाद में हमारी अंबेसडर सामने से रहे एक ट्रक से लड़ गई। आमने सामने की यह टक्कर इतनी ज़बरदस्त थी कि जय प्रकाश शाही और ड्राइवर का मौके पर ही निधन हो गया। दिन का एक्सीडेंट था और मैं भाग्यशाली था कि मेरे आईपीएस मित्र दिनेश वशिष्ठ उन दिनों सीतापुर में एसपी थे। मेरा एक्सीडेंट सुनते ही वह सिर्फ़ मौके पर आए बल्कि हमें अपनी गाड़ी में लाद कर सीतापुर के अस्पताल में फ़र्स्ट एड दिलवा कर सीधे खुद मुझे पीजीआई भी ले आए। मैं उन दिनों गृह मंत्रालय भी देखता था। सो तब के प्रमुख सचिव गृह राजीव रत्न शाह ने भी पूरी मदद की। स्टेट हेलीकाप्टर तक की व्यवस्था की मुझे वहां से ले आने की। मेरा जबड़ा, सारी पसलियां, हाथ सब टूट गया था। छह महीने बिस्तर पर भले रहा था और वह तकलीफ़ सोच कर आज भी रूह कांप जाती है। लेकिन समय पर इलाज मिलने से बच गया था।
यह 18 फ़रवरी, 1998 की बात है। उस वक्त मेरे इलाज में भी काफी पैसा खर्च हुआ। पर पैसे की कमी आड़े नहीं आई। मैं तो होश में नहीं था पर उस दिन भी पीजीआई में मुझे देखने यही मुलायम सिंह यादव सबसे पहले पहुंचे थे। और खाली हाथ नहीं पहुंचे थे। मेरी बिलखती पत्नी के हाथ पचीस हज़ार रुपए रखते हुए कहा था कि इलाज में पैसे या किसी भी चीज़ की कमी नहीं आएगी। आए तब के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह भी और एक लाख रुपए और मुफ़्त इलाज का ऐलान लेकर आए। अटल बिहारी वाजपेयी से लगायत सभी नेता तमाम अफ़सर और पत्रकार भी। नात-रिश्तेदार, मित्र -अहबाब और पट्टीदार भी। सभी ने पैसे की मदद की बात कही। पर किसी मित्र या रिश्तेदार से परिवारीजनों ने पैसा नहीं लिया। ज़रूरत भी नहीं पडी। सहारा के चेयरमैन सुब्रत राय सहारा जैसा कि कहते ही रहते हैं कि सहारा विश्व का विशालतम परिवार है, इस पारिवारिक भावना को उन्होंने अक्षरश: निभाया भी। हमारे घर वाले अस्पताल में मेहमान की तरह हो गए थे। सहाराश्री और ओपी श्रीवास्तव खुद अस्पताल में खड़े रहे और सारी व्यवस्था खर्च से लेकर इलाज तक की संभाल ली थी। बाद में अस्पताल से घर आने पर अपनी एक बुआ से बात चली तो मैंने बडे फख्र से इन सब लोगों के अलावा कुछ पट्टीदारों, रिश्तेदारों का ज़िक्र करते हुए कहा कि देखिए सबने तन मन धन से साथ दिया। सब पैसा लेकर खड़े रहे। मेरी बुआ मेरी बात चुपचाप सुनती रही थीं। बाद में टोकने पर भोजपुरी में बोलीं, ‘बाबू तोहरे लगे पैसा रहल सब पैसा ले के गईल। नाईं रहत केहू नाई पैसा ले के खडा होत! सब लोग अखबार में पढि लेहल कि हेतना पैसा मिलल, सब पैसा ले के गइल!’ मैं उन का मुंह चुपचाप देखता रह गया था तब। पर अब श्रीलाल शुक्ल और अदम गोंडवी का यह फ़र्क देख कर बुआ की वह बात याद गई।
तो क्या अब यह हिंदी के लेखक अदम गोंडवी से मिलने जाएंगे अस्पताल? पचास हज़ार ही सही उन्हें इलाज के लिए मिल तो गया ही है। आगे का अश्वासन भी। और मुझे लगता है कि आगे भी उनके इलाज में मुलायम पैसे की दिक्कत तो नहीं ही आने देंगे। क्योंकि मुझे याद है कि इंडियन एक्सप्रेस के एसके त्रिपाठी ने मुलायम के खिलाफ़ जितना लिखा, कोई सोच भी नहीं सकता। मुलायम की हिस्ट्रीशीट भी अगर आज तक किसी ने छापी तो इन्हीं एसके त्रिपाठी ने। पर इसी पीजीआई में जब एसके त्रिपाठी कैंसर से जूझ रहे थे तब मुलायम सिर्फ़ उन्हें देखने गए थे बल्कि मुख्यमंत्री के विवेकाधीन कोष से उन्हें दस लाख रुपए भी इलाज के लिए दिए थे। मुझे अपना इलाज भी याद है कि जब मैं अस्पताल से घर लौटा था तब जाकर पता चला कि आंख का रेटिना भी डैमेज है। किसी ने मुलायम को बताया। तब वह दिल्ली में थे। मुझे फ़ोन किया और कहा कि, ‘पांडेय जी घबराइएगा नहीं, दुनिया में जहां भी इलाज हो सके कराइए। मैं हूं आपके साथ। सब खर्च मेरे ऊपर।हालांकि कहीं बाहर जाने की ज़रूरत नहीं पड़ी। इलाज हो गया। लखनऊ में ही। वह फिर बाद में सिर्फ़ मिलने आए बल्कि काफी दिनों तक किसी किसी को भेजते रहे थे। मेरा हालचाल लेने। पर हां, बताना तकलीफ़देह ही है, पर बता रहा हूं कि मेरे परिचित लेखकों में से [मित्र नहीं कह सकता आज भी] कभी कोई मेरा हाल लेने नहीं आया। मैं तो खैर जीवित हूं पर कानपुर की एक लेखिका डा सुमति अय्यर की 5 नवंबर, 1993 में निर्मम हत्या हो गई। आज तक उन हत्यारों का कुछ अता-पता नहीं चला। सुमति अय्यर के एक भाई हैं आर. सुंदर। पत्रकार हैं। उन्होंने इसके लिए बहुत लंबी लडाई लडी कि हत्यारे पकडे जाएं। पर अकेले लडी। कोई भी लेखक और पत्रकार उनके साथ उस लडाई में नहीं खडा हुआ। एक बार उन्होंने आजिज कर राज्यपाल को ज्ञापन देने के लिए कुछ लेखकों और पत्रकारों से आग्रह किया। वह राजभवन पर घंटों लोगों का इंतज़ार करते खडे रहे। पर कोई एक नहीं आया। सुंदर बिना ज्ञापन दिया लौट आए राजभवन से और बहन के हत्यारों के खिलाफ़ लडाई बंद कर दी। लेकिन वह टीस अभी भी उनके सीने में नागफनी सी चुभती रहती है कि क्यों नहीं आया कोई उस दिन राजभवन ज्ञापन देने के लिए!
तो अदम गोंडवी आप ऐसे हिंदी लेखक समाज में रहते हैं जो संवेदनहीनता और स्वार्थ के जाल में उलझा पैसों, पुरस्कारों और जुगाड़ के वशीभूत आत्मकेंद्रित जीवन जीता है और जब माइक या कोई और मौका हाथ में आता है तोपाठक नहीं हैका रोना रोता है। समाज से कट चुका यह हिंदी लेखक अगर आप की अनदेखी करता है तो उस पर तरस मत खाइए। खीझ दिखाइए। अमरीकापरस्ती को गरियाते-गरियाते अब यह लेखक अमरीकी गूगल और फ़ेसबुक की बिसात पर क्रांति के गीत गाता है। और ऐसे समाज की कल्पना करता है जो उसे झुक झुक कर सलाम करे। फासीवाद का विरोध करते करते आप का यह लेखक समाज खुद बड़ा फ़ासिस्ट बन गया है अदम गोंड्वी!
साभार नेटवर्क6

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