म्यांमार के जरिए बड़े खेल की तैयारी
अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन की म्यांमार यात्रा, उन्हीं के शब्दों में एक नये अध्याय के साथ सम्पन्न हुयी। नेपियेद्वा में दोनों देशों के सम्बंधों की इस नयी शुरूआत में तमाम आर्थिक और रणनीतिक पक्ष छुपे हैं जिसे अमेरिका, चीन और शेष विश्व अपने-अपने नजरिए से देखने की कोषिष में है। अमेरिकी विदेश मंत्री की तरह म्यांमार के राष्ट्रपति थेन सेन भी इन सम्बंधों को एक मील का पत्थर मान रहे हैं लेकिन चीन ने इस अपनी भौहें तरेर हुए यह धमकी दी है कि उसके हितों के खिलाफ काम हुआ तो वह उसे स्वीकार नहीं होगा। चीन के भड़कने से तो यही संकेत मिलता है कि पूर्वी एषिया और एशिया-प्रशांतश में जिस ग्रेट गेम की तैयारियां चल रही हैं, म्यांमार के प्रति अमेरिकी सहिष्णुता उसी रणनीति का एक हिस्सा हैं।
पिछले 50 वर्षों में हिलेरी क्लिंटन म्यांमार पहुंचने वाली पहली सबसे वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारी हैं। इस लिहाज से इस यात्रा के निहितार्थ व्यापक महत्व वाले हो सकते हैं। इसका पहला कारण तो यही है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर और विशेष तौर पर अमरीका की ओर से सेना समर्थित म्यांमार सरकार के खिलाफ कड़े प्रतिबंध लगे हुए हैं लेकिन अब अमेरिका इस मामले में अपना नजरिया तेजी से बदल रहा है। इसकी पुष्टि मैडम हिलेरी के इस कथन से होती है कि ‘मैं आज यहाँ इसलिए हूँ क्योंकि मैं और राष्ट्रपति बराक ओबामा आपके और आपकी सरकार के म्यांमार के लोगों के लिए हाल में उठाए कुछ कदमों से प्रोत्साहित हुए हैं।’ हालांकि उन्होंने स्पष्ट किया कि अमेरिका म्यांमार पर लगे प्रतिबंधों को हटाने नहीं जा रहा है। इसके अर्थ हो सकते हैं। पहला यह कि अमेरिका अभी सहज रूप से म्यांमार को स्वीकार नहीं कर पा रहा है जबकि दूसरा यह है कि अमेरिका क्रमिक सौदेबाजी के तहत म्यांमार के साथ साझेदारी बढ़ाने का इच्छुक है। सवाल यह उठता है कि क्या अमेरिका म्यांमार में जुंटा के समर्थन वाली सरकार के बदलते दृष्टिकोण के कारण उसके साथ रिश्तों को सामान्य बनाने का इच्छुक है या फिर एषिया-प्रषांत क्षेत्र में चल रहे बड़े खेल में अपने अनुकूल परिणाम लाने के लिए म्यांमार की आवश्यकता को देखते हुए ऐसा कर रहा है ?
गौरतलब है कि नयी सरकार के बनने के समय से म्यांमार में बदलाव की हवा बहती दिख रही है। नयी सरकार द्वारा सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों में ढील दी गई है और लोगों को ज्यादा अधिकार दिए गए हैं। नयी सरकार की ये गतिविधियां वैश्विक समुदाय की अपेक्षाओं के अनुकूल हैं। इस बदलाव को अमेरिका ने भी सकारात्मक रूप में लेकर कुछ समय पहले ही इस बेहतर सम्बंधों के निर्माण के उदद्ेश्य से ओबामा प्रशासन ने विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन को म्यांमार भेजने का निर्णय लिया था। इन परिवर्तन में एक परिवर्तन आंग सान सू की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी द्वारा आने वाले चुनाव में भाग लेने की घोषणा सम्बंधी है। उल्लेखनीय है कि पहले जुंटा सरकार ने उनकी पार्टी पर चुनाव में भाग लेने से रोक लगा दी थी लेकिन इस रोक को हटा दिया गया है। कुछ विश्लेषकों का यह भी मानना है कि सू की ने पिछले साल आम चुनाव में कसम खाई थी कि वे कभी वोट नहीं डालेंगी लेकिन अब जब सैनिक शासक लोकतंत्र की नई परिभाषा लिख रहे हैं, तो उन्होंने भी इसे स्वीकार करना ही बेहतर समझा। सू की के परिवर्तन पर यह भी सवाल उठाया गया कि उनका यह परिवर्तन आकस्मिक है या फिर उनके इस हृदय-परिवर्तन के पीछे अमेरिकी प्रयास जिम्मेदार हैं। बहुत हउ तक अमेरिकी प्रयास जिम्मेदार हैं लेकिन म्यांमार की नयी आवश्यकताएं और महत्वाकांक्षाएं भी इस दिषा में उसे ले जाने के लिए जिम्मेदार मानी जा सकती हैं क्योंकि म्यांमार की सरकार अब यह मानने लगी है कि पुरानी निरंकुषतावादी परम्पराओं को अनुसरण करके वह बहुत दिनों तक टिक नहीं पाएगी। इसलिए इस उद्विकास को अन्योन्याश्रित सम्बंधों पर आधारित करके देखना चाहिए। कुछ विश्लेषकों का तो यह भी कहना है कि इसमें भारत की प्रमुख भूमिका रही है। इससे इनकार इसलिए भी नहीं किया जा सकता क्योंकि क्योंकि भारत पिछले लम्बे समय म्यांमार के साथ अपने सम्बंधों को एक नयी दिषा देने की कोषिष कर रहा है और अमेरिका के साथ रणनीतिक सम्बंधों के विकास पर जोर दे रहा है।
वैदेषिक पर्यवेक्षकों का यह भी कहना है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के हाल के एशिया-प्रशांत क्षेत्र संबंधी बयान और अमरीका का एषिया पर ध्यान केंद्रित करने की नीति का यह हिस्सा है। चीन को इस क्षेत्र में सबसे प्रभावशाली ताकत के रूप में उभरने से रोकने के लिए अमेरिका के लिए इस तरह की रणनीति पर कार्य करना अनिवार्य है। ऐसा लगता है कि अमेरिका म्यांमार को लेकर अपना होमवर्क बड़ी ही बारीकी से कर रहा है। इसका कारण शायद अमेरिकी कूटनीतिक के केन्द्र का षिफ्ट होना है। गौर से देखने से लगता है कि अब अमेरिकी कूटनीति इराक, अफगानिस्तान और मध्य-पूर्व से पूर्वी एशिया और एषिया-प्रशांत की तरफ स्थानांतरिक हो रही है। इसका संकेत स्वयं बराक ओबामा आसियान के बाली सम्मेलन में दे चुके हैं। हालांकि अभी यह नहीं कह जा सकता है कि ओबामा प्रशासन इस नीति को क्षतिपूरक प्रभाव (कम्पनसेटरी इफेक्ट) के रूप ले रहा है या नहीं, लेकिन ऐसा जरूर लगता है कि पष्चिमी दुनिया की भावी रणनीतियों का केन्द्र एषिया-प्रषांत ही होगा। म्यांमार इस रणनीतिक का एक प्रभावी घटक बन सकता है। चूंकि म्यांमार की जुंटा समर्थित सरकार म्यांमार को चीन के प्रभाव क्षेत्र से मुक्त कराने की कोषिष कर रही है, इस स्थिति में अमेरिका को उसे अपने घेरे में लाने के लिए ज्यादा प्रयासों की जरूरत नहीं पड़ेगी।
फिलहाल म्यांमार अब विकास चाहता है और इसके लिए आवश्यक धन का प्रवाह अमेरिका सीधे या अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के जरिए बढ़ा सकता है। यही नहीं अमेरिका इसके जरिए एक तो यांगून-प्योंगयांग परमाणु धुरी को बनने से रोक सकता है और इसके साथ ही म्यांमार को चीनी छतरी से निकालकर पश्चिमी छतरी के नीचे लाने में कामयाब हो सकता है। अगर ऐसा हो जाता है तो अमेरिका पूर्वी एषिया एवं एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीनी शक्ति को काउंटर करने में सफल हो जाएगा। लेकिन इस अमेरिकी खेल में ध्यान देने वाली बात यह होगी कि चीन कहीं भारत जैसे पड़ोसी देष के साथ कोई अव्यहारिक स्थिति पैदा न कर दे।
रहीस सिंह
लेखक वैदेशिक मामलों के विशेषज्ञ हैं
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