Saturday, 19 November 2011

धर्म

सांप्रदायिक सदभाव की मिसाल है देवाशरीफ


  धर्म और जाति के नाम पर देश के दूसरे हिस्सों में भले ही खून-खराबा होता हो,मगर देवा शरीफ जाने वालों को देखकर यही कहा जा सकता है कि आज भी वारिसे-पाक की मुहब्बत का पैगाम लोगों के दिलों में जिन्दा है और ता-कयामत जिदां रहेगा। नफरत की दीवारों को गिराकर आम अवाम के दिलों में मुहब्बत की रोशनी जलाने वाले महान फकीर हाजी सैयद वारिस अली शाह की मजार देवा शरीफ हिंदू-मुस्लिम एकता और आपसी भाईचारे की मिसाल बन गई है। जहॉ एक और देश-विदेश से विभ्भन धर्मों को मानने वाले लोग हजारों की संख्या में आते है,श्रद्धा सुमन अर्पित कर मन्नतें मांगते है वहीं दूसरी ओर दुनिया के तमाम हिस्सों में फैली नफरत, हसद बुग्ज और तअस्सुब (भेदभाव) को परस्त कर रहें है। सरकारी वारिसें पाक का मानना था कि चमार हों या खाकरूब (भंगी) हो हमारे यहॉ सब बराबर है, जो हमसे मुहब्बत करे वह हमारा है। यहीं वह कशिश है जो आज भी यहॉ सबको खीचं लाती है और लगता रहता है भावनाओं और आस्थाओं का अनुठा संगम। सरकार वारिसे पाक रमजानुल्लाह मुबारक की पहली तारीख को देवा शरीफ (बारबंकी) में पैदा हुए जब आप अपनी मॉ के शिकम में थे, इसी बीच आपके वालिद सैयद कुरबान अली शाह का इंतकाल हो गया। हजरत ईमाम हुसैन की 26वीं पुश्त में आप इमाम मूसा काजिम की नस्ल से काजमी सैयद है। आनके जद्दे अली आला सैयद असरफ अबी तालिब जो अपने वक्त के आला बुजुर्ग थे, पूरे परिवार के साथ नेशापुर से हिजरत करके हिन्दुस्तान तस्रीफ लाये और कस्बा रसूलपुर-किन्जतूर जिला बारबंकी में आबादी के बाहर सकूनत अखतियार कर ली। आप के सात पुश्त रसूलपुर-किन्तूर में गुजरी और 1411हिजरी में आपकी 8वीं पुश्त में सैयद अब्दुल अहद रह नें अपनी सकूनत किन्तूर से देवा शरीफ मुताकिल कर ली। 1141हिजरी सैयद मरीन शाह की पैदाइस हुई जो आप के पर दादा थे। जब आपकी उम्र तीन साल की हुई, तो आप की वालिदा का भी इन्तकाल हो गया। इस हादसे बाद भी आप की परवरिस अपकी दादी सहिबा ने फरमायी हाफिज दीदार शाह वारिसे की किताब पैगाम-ए-मुहब्बत के अनुसार जब वारिसे पाक की उम्र पाचॅ साल की हुई तो घरेलू तालीम के बाद आपकी दादी ने जाहिरी तालीम के लिए आपको अपने धरे तरकत हजरत अमीर अली शाह के पास भेजा। उन्होंने आप को देखकर फरमाया की यह साहबजादे तो तमाम मख्लुके खुदा के रहनुमा होंगे और तमाम आलम में इनका डंका बजेगा।
   आपके बचपन का आलम था कि दादी साहिबा के सन्दूक से अशर्फि रूपये जो मिल जाता उससे निकाल लाते और (लुकई) हलवाई को देकर कहते की हम को इसका एक बतासा बना दो। वह सीनी के बराबर बताशा बना देता तो आप उसे तोड़तोड़ के बच्चों में तकसीम कर देते इसकी खबर जब दादी साहिबा को मिलती तो वह नाराज होने के बजाय खुश होती। आप अक्सर घर से गायब हो जाते तो घर वालों को फिक्र होती लेकिन वह खुद घर भी वापस आ जाते। एक दिन तंग आकर दादी साहिबा ने आपको कोठरी में बंद कर दिया। कुछ देर बाद आप कोठरी से गायब हो गये जब तलाश हुई तो एक बाग में खेलते मिले। अक्सर घर से रूपया अशर्फि लेकर गरीब को दे देते है और मुहताजों को अपने पहने हुए कपड़े भी तकसीम कर देते। खासकर बच्चों को पास बैठाकर खेल के बहाने दुनिया की हिकारज और खुदा की मुहब्बत की हिदायत फरमाते थे। आप की उम्र जब लगभग सात साल की हुई तो आपकी दादी का इन्तकाल हो गया। जब आपकी उम्र खादिम अली शाह ने भी 14 सफर 1253 हिजरी को दुनिया की निगाहों से पर्दा फरमा लिया। इसके  बाद बुजुर्गाों के इफिके राय से आपको खलीफा बनाया गया। दरअसल आप मंजिले इश्के तय का रहे थे, इस लिये आप रश्मी शान- शौकत के कायल ना थे। आप फरमाते थे पिगडी विगडी झगडा है। हम नहीं जानते। असी के साथ आप ने देवा शरीफ में अपने घर का सारा सामान गरीब मिसकीनों में तक्सीम कर दिया और बाप-दादा की सारी जायदाद बॉट दी और मालिकाना हुकूक के सारे के सारे कागजात तालाब में डूबो कर दुनिया के झमेलों से छुटकारा पा लिया लखनऊ चले आये। अभी आप की उम्र 14 साल की ही थे आप हज़ के लिए जाने की सोंच रहे थे कि आप के पारे तरिकत हजरत खादिम अलिसा की ओर से बसारत हुई की तुम सफर अख्तियार करो आप लखनऊ से चलकर उन्नाव, कानपुर, इटॉवा, शीकोहाबाद, आगरा,जयपुर होते हुये अजमेर शरीफ पहुॅचे, इसके बाद यहॉ से चलकर नगौर, हरदावल और दीगर शहरों में कवाम करते हुए बंबई पहुॅचे, इस दौरान बहुत सारे कौम आपके मुरीद हो गये।बंबई कयाम के दौरान मुरीदों ने सफर का सामान साथ करना चाहा, मगर आपने कतई पसंन्द नही किया और ना ही किसी को साथ लिया। बडी़ सादगी से अपना कंबल तन्हा उठा कर जहाज पर सवार हो गये। मक्का मोअज्जमा पहुच कर अपने हज के अरमान अदा किए और मदीना शरीफ के लिए रवाना हो गये। रौजए रसूले पाक पर हाजरी दी और जियारत किया जियारत के बाद काफी दिनों तक मदीना शरीफ में कयाम फरमाया और इस दौरान तमाम मोकद्दस मजारात पर हाजिरी दी। आप ने अपनी ज्यादातर जिंदगी सफर में गुजारी। इस सफर और सैयाहत के दौरान आपने समूची दुनिया को बिला तफरीके मजीब और मिल्लत यानी बिना भेदभाव के तमाम दुनियाए आलम को मुहब्बत इंसानियत खुदापरस्ती का पैगाम पहुॅचाया।
    आपने अपनी दिखावा जिंदगी में इस दुनियाए आलम को वह जामे मुहब्बत अता फरमाई, जो आज भी बेमिसाल है और सरजमीनें देवा शरीफ पर हिन्दू-मुस्लिम एकमा के रूप में दिखायी पड़ रही है। असपने 1223 हिजरी यानी सन् 1905 में 7 अप्रैल दिन जुमा सुबह 4 बजकर 13 मिनट पर इस दुलियाए फानी से पर्दा फरमा लिया। अपनी जाहिरी जिंदगी में आपने ऐसी मिसाल बनाई और ऐसा लोहे अमल पेरूा किया कि आज भी लोग मजहब के दायरे से बाहर आकर आपकी मजार पर हाजरी देते है उर्स के दौरान यहॉ के गंगा-जमुनी तहजीब लोगों को मंत्र मुग्ध कर देती है। यही कारण है कि आपके मुरीदों में मुसल्मानों के अलावा सभी धर्म के मानने वाने शामलि है। देवा शरीफ में मौजूद वारिसे पाक की मजार हिन्दू-मुस्लिम एकता और सद्भाव की अनूठी मिसाल है। देश के तमाम हिस्सों में धर्म और जाति के नाम पर भले ही खून-खराबा होता हो, मगर यहॉ पर आने वाले लोगों को देख कर यही कहा जा सकता है कि आज भी वारिसे पाक की मुहब्बत का पैगाम लोगों के दिलों में जिंदा है और ता-कयामत जिंदा रहेगा।

संत कबीर नगर से कमालुद्दीन सिद्दीकी 

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