विश्व में मानवता की मां 'मदर टेरेसा' के नाम से मशहूर हुई। कितने हैं जो
उनकी तरह गरीबों को गले लगाते हैं ? दु:खियारों की मरहम-पट्टी करते है ?
दरअसल वे (मदर टेरेसा) मानवता की मसीहा थीं। वे जीवन के नरक से निवासियों
का निरंतर उद्धार करती रहीं। मदर मर कर भी अमर हैं। युगोस्लाविया के
स्कोपिये में 2६ अगस्त, 1910 में आग्नेस का उनका जन्म हुआ। साधारण
व्यावसायिक परिवार की आग्नेस ने बारह वर्ष की उम्र में ही मिशनरी बनाने
का सपना संजो लिया। अठारह साल की होने पर आग्नेस ने लॉरेटो की आयरिश शाखा
की ननों में शामिल होना पसंद किया। 1937 में आखिरकार प्रतिज्ञाबद्ध हुई।
वे उस समय कोलकाता के सेंट मेरी स्कूल में लड़कियों को भूगोल पढ़ाती थीं।
स्कूल के पड़ोस में ही मोतीझील बस्ती की झोपड़पट्टियां थीं, लेकिन वे चाहकर
भी चहारदिवारी के बाहर नहीं निकल पाती थीं।
वे 10 सितंबर 1946 को दार्जिलिंग जा रही थीं, तभी उन्हें अपने अंतस की
आवाज सुनाई पड़ी - तुम्हारा जन्म तो गरीब से गरीब की सेवा करने के लिए हुआ
है। उन्हें दो साल तक काफी जद्दोजहद करनी पड़ी और 1948 में कहीं जाकर
कोलकाता की बस्तियों में सेवा करने की चर्च से आज्ञा मिल पायी। उनके
व्यक्तिगत जीवन में क्रांति हो गयी। उन्होंने नन की वेशभूषा छोड़ नीली
धारियों वाली सादी साड़ी पहन ली और मरीजों की मरहम-पट्टी सीख ली। उसी साल
बड़ा दिन (पच्चीस दिसंबर) के पहले ही बेसहारा बच्चों के लिए स्कूल खोल
दिया। उनसे प्रेरित हो सेंट मेरी स्कूल की उनकी शिष्याएं भी उनसे जुड़
गयीं। बस्तीवासियों की तरह मां और शिष्याएं आचरण ही नहीं करतीं, वही
जिंदगी जीतीं। सबको खिलाने-पिलाने के बाद जो कुछ बचता-खातीं-पीतीं।
धीरे-धीरे मिशनरीज आफ चैरिटी का समुदाय बसता बढ़ता चला गया। 1950 में
उनके नि:स्वार्थ सेवा कार्यो के मद्देनजर पोप की स्वीकृत मिल गयी और
मिशनरीज आफ चैरिटी लड़खड़ाने से बचकर पटरी पर आ गई।
कोलकाता में मां के निर्मल हृदय-संस्थान की स्थापना के पीछे मार्मिक घटना
है। उन्होंने 1952 में देखा कि एक औरत रास्ते के किनारे पड़ी है। इतनी
लाचार कि जीते जी उसकी आधी देह चूहों ने कुतर डाली है और उसके घावों में
कीड़े बिलबिला रहे हैं। उसे अस्पताल में भर्ती करवाने में मां के पसीने
छूट गये थे। मर्माहत मां ने कालीघाट के मंदिर के समीप एक कमरे की
व्यवस्था की और उसी कमरे में 'निर्मल हृदय' नामक संस्था ने जन्म लिया।
निर्मल हृदय में दम तोड़ते बेसहारा फुटपाथियों की सेवा-सुश्रुषा की शुरूआत
हुई। आज के सुव्यवस्थित निर्मल हृदय को देखकर कल्पना भी नहीं की जा सकती
कि निर्मल हृदय खपरैल वाली बारादरी जैसा था, जहां कभी कालीघाट के
तीर्थयात्री ठहरा करते थे। कोलकाता महानगर जैसे निर्मल हृदय संसार भर में
फैल गये हैं, जहां किसी को निराश्रित महसूस नहीं होता। सत्तर से ज्यादा
कोढि़यों के ठिकाने हैं, जिन्हें सहारा ही नहीं मिलता, सांत्वना भी मिलती
है। उनके बुझते दिलों में आशा के दीये जलाये जाते हैं। अनेक अनाथालय हैं,
जहां अनाथ बच्चों को आश्वस्त किया जाता है कि उनके सिर पर भी किसी का हाथ
है।
ढाई हजार साल पहले गौतम बुद्ध ने जिस सच्ची करुणा का सूत्रपात किया था,
उसका अत्याधुनिक संस्करण मां टेरेसा के संस्थान हैं। 'मिशनरीज आफ चैरिटी'
में मां समाधिस्थ हैं मानो सेवा कार्यो की सक्रियता में सन्नद्ध। 'निर्मल
हृदय' में अंतिम सांस लेते हिंदू को गंगाजल मिलता है, मुस्लिम पवित्र
कुरान की आयतें सुनता है और ईसाइयों का यथोचित अंतिम संस्कार होता है।
अनाथालयों के बच्चे अपने संप्रदाय से ही जुड़े रहते हैं। मां के अनेक ऐसे
संस्थान भी हैं, जहां पोप-अनुमोदित परिवार-नियोजन सिखाया जाता है।
गर्भपात को मां गंभीर अपराध मानती रहीं और 'कैथोलिक मत' का हवाला देतीं।
मां का दृढ़ विश्वास था कि गरीब दुरदुराएं नहीं जायें तो वे भी गरीब नहीं
रहेंगे। मां दकियानूस नहीं, दरियादिल थीं। उनके आधुनिक उपकरणों के उपयोग
का तरीका भी अनोखा था। 1965 में पोप पाल छठे अपनी लिंकन कांटिनेंटल
लियूजीन कार मां को भेंट कर गये थे। मां ने फौरन लॉटरी करवायी। इस प्रकार
लाखों की कमाई सेवा कार्यो के लिए संभव हो गयी। 1973 में इंपीरियल के.
निकल ने अपना एक पुराना रोगन कारखाना मां को भेंट कर दिया, मां ने उसमे
मनोरोगी स्त्रियों, बीमारों और अनाथ बच्चों का आश्रयस्थल बना डाला।
कोलकाता की अलिया-गलियों से कच्चे नारियल का कचरा उठाकर उन्होंने 'लघु
कोपरा' उद्योग कायम करा दिया। उनके सेवा कार्य उनकी महानता, विनम्रता,
सहृदयता की खुली किताब हैं। आज की कराहती मानवता मदर को शिद्दत से तलाश
रही है, जिनका कोई नहीं मां उनके लिए स्नेह का संबल थीं, सहारा थीं। मां
टेरेसा के सूरज का अस्त नहीं होने वाला। उनकी प्रेरणा का प्रकाश पुंज
मानवता को सदा-सर्वदा रौशन करता रहेगा।