लोकसेवा आयोग का हिंदी
बैर!
रहीस सिंह
पिछले कुछ समय
से भारतीय
सिविल सेवा
परीक्षा की
तैयारी करने
वाले युवा
संक्रमण और
अवसाद का
शिकार बन
रहे हैं।
उन्हें यह
पता नहीं
है कि
आने वाले
समय में
संघ लोक
सेवा आयोग
क्या करने
वाला है।
आयोग के
अध्यक्ष या
सचिव की
तरफ से
आधिकारिक बयान
तो नहीं
आते हैं,
लेकिन खबरें
अक्सर धमाका
करती हैं
कि कुछ
दिन में
ही सब
बदलने वाला
है। तैयारी
करने वाले
विद्यार्थियों की सांसें अटक जाती
हैं और
वे समय
की प्रतीक्षा
में अवसाद
की ओर
बढ़ने लगते
हैं। जब
खबर आती
है कि
मुख्य परीक्षा
में वैकल्पिक
विषय खत्म
कर दिए
जाएंगे तो
कम से
कम हिंदी,
उर्दू और
संस्कृत विषय
वालों की
एक मौत
हो जाती
है, क्योंकि
वे किसी
तरह से
अपने इन्हीं
विषयों के
बूते लक्ष्य
तक पहुंचने
का सपना
देख पा
रहे हैं।
सवाल यह
उठता है
कि आखिर
आयोग की
कार्यशैली में इतनी अपारदर्शिता, अस्पष्टता
और अनिश्चितता
क्यों है?
आखिर आयोग
क्या साबित
करना चाहता
है? कभी-कभी तो
लगने लगता
है कि
आयोग भी
सरकार की
राह चल
रहा है।
लाखों युवाओं
का भविष्य
दांव पर
लगा है,
लेकिन उसे
कोई फर्क
नहीं पड़ता,
पड़े भी
क्यों आखिर
संवैधानिक शक्तियां जो उसके पास
हैं। लेकिन
ऐसा क्यों
होता है?
आयोग अपने
क्रियान्वित और संभावित बदलावों के
पक्ष में
तमाम तकरीरें
पेश करता
है, लेकिन
ये कुछ
वैसी ही
होती हैं,
जैसी इस
समय कांग्रेसनीत
सरकार की
हैं। बहुत
मुमकिन है
कि ये
बदलाव सरकार
की सोच
का ही
नतीजा हों,
जिसके जरिए
वह हिंदी
भाषी क्षेत्र
और हिंदी,
उर्दू, संस्कृत
जैसे विषयों
के युवाओं
को बाहर
का रास्ता
दिखाना चाहता
हो। मनमोहन
सिंह जब
पहली बार
प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने
कहा था
कि भारत
में सिविल
सेवा परीक्षा
को फ्रांस
के पैटर्न
पर संचालित
किया जाएगा
यानी 12वीं
के बाद
ही परीक्षा
ली जाएगी
और इसमें
चयनित प्रतिभागियों
को पांच
वर्ष तक
सरकारी पैसे
से प्रशिक्षण
दिया जाएगा।
अंतिम रूप
से चयनित
प्रतिभागियों की नियुक्ति होगी और
शेष को
अन्य क्षेत्रों
में भेजा
दिया जाएगा।
इसके पीछे
उनका तर्क
यह था
कि सिविल
सेवकों का
राजनीतिकरण हो रहा है, जिससे
वे अकुशल,
अक्षम और
भ्रष्ट बन
रहे हैं।
जब मनमोहन
सिंह यह
फार्मूला पेश
कर रहे
थे, उसी
समय उत्तर
प्रदेश के
तत्कालीन मुख्यमंत्री
ने अखंड
प्रताप सिंह
को राज्य
का मुख्य
सचिव बनाया
था, जिन्हें
आइएएस एसोसिएशन
ने सबसे
भ्रष्ट आइएएस
बताया था।
जब उन्हें
सुप्रीम कोर्ट
ने हटाने
का आदेश
दिया तो
भ्रष्ट नंबर
दो यानी
नीरजा यादव
मुख्य सचिव
बन गई।
उन्हें भी
उसी तरह
से हटाया
गया। आज
आइएएस-आइपीएस
लॉबी पूरी
तरह राजनीतिक
हो चुकी
है। ऐसे
में क्या
गारंटी है
कि चयन
के बाद
उनकी कार्यशैली
में सुधार
होगा ही?
आयोग की
वैकल्पिक विषय
हटाने की
दो दलीलें
हैं। कोचिंग
तंत्र को
खत्म करना
और परीक्षा
में एकरूपता
लाना। आयोग
ने जब
प्रारंभिक परीक्षा में विषय हटाकर
एप्टीट्यूड टेस्ट लागू किया तो
बैंक या
एसएससी की
क्लर्क परीक्षाओं
की तैयारी
कराने वाले
कोचिंग संस्थान
भी सिविल
सेवा परीक्षा
की तैयारी
कराने लगे।
सीएसएटी यानी
सिविल सेवा
एप्टीट्यूड टेस्ट के लागू होते
ही दिल्ली,
लखनऊ, इलाहाबाद,
पटना, इंदौर
और देहरादून
जैसे शहरों
में कोचिंग
संस्थानों में कम से कम
दो या
तीन गुना
वृद्धि हो
गई थी।
इस अव्यवस्था
में युवा
सबसे ज्यादा
ठगा गया,
क्योंकि आयोग
ने मॉडल
टेस्ट पेपर
वेबसाइट पर
नहीं डाला।
कुछ समय
के लिए
तो लग
रहा था
कि आयोग
इस विषय
में खुद
दिग्भ्रमित था कि आखिर प्रश्नों
का स्वरूप
कैसा होगा?
इसका पूरा
लाभ कोचिंग
संस्थानों को मिला। इसके बाद
प्रश्नपत्रों का जो स्वरूप सामने
आया उससे
हिंदी भाषी
छात्रों को
धक्का लगा
और बाजी
दक्षिण के
लोगों तथा
अंग्रेजी भाषियों
के हाथ
लगी। आयोग
को कम
से कम
इतना तो
बताना चाहिए
कि वह
इसके जरिए
कौन सी
एकरूपता लाया
है? अब
आयोग मुख्य
परीक्षा में
भी विषयों
को खत्म
कर देना
चाहता है।
तर्क वही
कि परीक्षा
में एकरूपता
और कोचिंग
तंत्र का
समापन। कोचिंग
तंत्र का
समापन तो
किसी स्थिति
में नहीं
होगा, क्योंकि
देश में
छात्रों और
संरक्षकों में कोचिंग संस्थान ही
सफलता के
एकमात्र दिग्दर्शक
हैं, यह
मनोविज्ञान पूरी तरह से विकसित
हो चुका
है। आयोग
के सदस्य
इस जमीनी
हकीकत से
या तो
वाकिफ नहीं
है या
फिर वे
अनजान बने
रहना चाहते
हैं। दूसरा
तर्क है
सभी को
समान अवसर
मुहैया कराने
का। या
यों कहें
कि साधारण
विश्वविद्यालयों के स्नातक व परास्नातक
छात्र आइआइटी
के छात्रों
की बराबरी
में आ
जाएंगे। यह
तर्कहीन बात
है। क्या
आयोग यह
मानता है
कि इन
दोनों संस्थानों
के छात्रों
का आइक्यू
बराबर है?
अगर मानता
है तो
फिर उसकी
योग्यता पर
भी उंगली
उठाने का
साहस करना
पड़ेगा। एक
सामान्य स्नातक
छात्र आइआइटी
स्नातक से
काफी पीछे
होता है।
खासतौर पर
लॉजिकल विषयों
अंग्रेजी, बायोडाइवर्सिटी, प्रौद्योगिकीय
विकास, तकनीकी
आदि विषयों
में। ऐसे
तो मानविकी
ग्रुप के
विषयों से
स्नातक कहीं
नहीं रहेंगे
और दबदबा
आइआइटी, आइआइएम
और मेडिकल
के छात्रों
का होगा।
पिछले कुछ
समय में
देखा गया
है कि
उत्तर भारत
के ग्रामीण
परिवेश के
छात्र या
कुछ पूर्वोत्तर
राज्यों और
जम्मू-कश्मीर
के हिंदी
साहित्य, उर्दू
या संस्कृत
जैसे विषय
लेकर आइआइटी
और आइआइएम
के छात्रों
से आगे
रहे हैं।
2009 में जम्मू-कश्मीर से
पहले आइएएस
टॉपर फैजल
शाह इसकी
मिसाल हैं,
जिन्होंने उर्दू विषय के कारण
ही टॉप
किया। देश
में अब
भी ऐसे
बहुत से
फैजल शाह
प्रतीक्षा की पंक्ति में हैं,
जिन्हें संघ
लोक सेवा
आयोग और
सरकार खत्म
कर देने
पर तुली
है। अंग्रेजी
शासन काल
में जब
कोई अंग्रेज
आइसीएस की
परीक्षा पास
कर भारत
आता था
तो पहले
उसे हेलिबरी
कॉलेज में
भारतीय इतिहास
और संस्कृति
की शिक्षा
दी जाती
थी, क्योंकि
अंग्रेजी हुकूमत
मानती थी
कि इतिहास
और संस्कृति
को जाने
बिना बेहतर
प्रशासन संभव
नहीं है।
अब यह
मूल मंत्र
नदारद हो
रहा है।
शायद यही
कारण है
कि क्षेत्रीयता,
सामुदायिक संघर्ष और टकराव बढ़ते
जा रहे
हैं और
प्रशासन समाधान
ढूंढ़ने में
अक्षम है।
खैर, आयोग
पूरी तरह
से बाजारवादी
मूल्यों को
प्रश्रय देने
पर आमादा
है। वह
यह आकलन
करने में
असमर्थ है
कि बाजार
अर्थव्यवस्था को चला सकता है,
प्रशासन को
नहीं। इस
देश में
अब भी
परंपरागत मूल्य
जिंदा हैं,
जिनके संरक्षण
और संवर्द्धन से
ही देश
का कल्याण
सुनिश्चित हो सकता है। आयोग
को इसे
नष्ट करने
का कोई
हक नहीं
है। बेशक,
बदलाव अच्छी
बात है,
लेकिन बदलाव
ऐसे हों
जो एकरूपता
के नाम
पर भेदभाव
न करें
और उन
लोगों को
भी अवसर
प्रदान करें,
जो हिंदी,
संस्कृत, उर्दू
या पाली
जैसे विषयों
के जरिये
इस उच्च
सेवा में
अपना स्थान
सुनिश्चित करना चाहते हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार
हैं)
(साभार दैनिक जागरण)
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