वक्त से लाचार हंसी के अलमबरदार
एम. अफसर खां सागर
एक महान विचारक ने कहा है कि ‘व्यक्ति को अगर जीवन में सफल होना है तो आम जिन्दगी में एक कलाकार की तरह अभिनय करे औैर जब रंगमंच के स्टेज पर नुमाया हो तो आम जिन्दगी जीये।’ कुछ ऐसे ही दो रिफरेंसल फ्रेम में बखूबी जीवन जीने की कला को सच कर दिखाया है बहुरूपियों ने। कभी लैला-मजनू तो कभी संयासी, पागल, शैतान, भगवान शंकर, डाकू, नारद और मुनीम जैसे तमाम किरदारों को ये बखूबी निभाते हैं। कहा जाता है कि नायक और खलनायक का रोल कभी एक व्यक्ति द्वारा नहीं निभाया जा सकता है। दोनों रोल कभी-कभार फिल्मों में ही एक साथ देखा जाता है लेकिन ये बहुरूपिये इस मिथक को पूरी तरह झुठला देते हैं। ये विभिन्न किरदारों को इस कदर पेष करते हैं कि एक बारगी लोग उन्हे वास्तविक समझ बैठत हैं।
विभिन्न रूपों का स्वांग रचाकर ये बहुरूपिये दो जून की रोटी की खातिर लोगों की दिलजोई करते अक्सर नजर आते हैं। मगर कोई उनके दिल से तो पूछे कि दूसरों को प्रसन्न करने वाले इन लोगों की जिन्दगी कितनी तल्ख है। गली-मुहल्लों में नारदा-नारद की रट लगाते भगवान नारद हों या फिर लैला-लैला की पुकार करता मजनू इन्हे देख कर आम लोग तो बड़ी आसानी से मुस्कुरा देते हैं मगर जिन्दगी के रंगमंच पर खुद को पागल साबित करते ये बहुरूपिये सिर्फ दो जून की रोटी के लिए खुद की खुषयों की बलि दे देते हैं।
वक्त के घूमते पहिये ने इन बहुरूपियों को भी अपनी जद में लिया है। आधुनिकीकरण और इन्टरनेट की फंतासी दुनिया तथा विडियोगेम ने बहुरूपियों के इस स्वांग कला को चौपट कर दिया है। पहले ये जिस गली-कूचे से भगवान का रूप धारण कर निकलते तो लोगों के शीष आस्था पूर्वक झूक जाते थें तथा लोग इन्हे आसानी से अन्न व धन अर्पित कर देते थे जिससे की इनका और इनके परिवार का पेट बड़ी आसानी से पलता था। मगर अब इनकी कला के कद्रदान ही नहीं रहे अगर ये किसी मुहल्ले से गुजर भी जाते हैं तो लोग इन्हे हिकारत भरी नजरों से देखते हैं।
अक्सर गांव कूचों में नारद-नारद की रट लगाने वाले गोपाल शर्मा ‘नारद’ कहते हैं कि ‘अभी ज्यादा समय नहीं बीता है बस पाँच-छः साल पुरानी बात है मैं जिस गली से गुजरता बच्चे पीछे-पीछे हो लेते तथा लोग प्रसन्नता पूर्वक हमें कला के बदले कुछ न कुछ दिया करते मगर अब वैसा वक्त कहाँ रहा।’ क्या कारण है कि लोग अब बहुरूपियों में रूचि नहीं लेते ? इस पर नारद का जवाब था कि ‘अब घर-घर सी.डी. और टी.वी. हो गया है उस पर तरह-तरह के बनावटी प्रोग्राम दे रहे हैं अब हमारी पूछ कहाँ।’
वक्त के बदलते मिजाज ने इनके व्यवसाय को काफी नुक्सान पहुँचाया है। पष्चिमी संस्कृति के भारत में आ जाने से परम्परागत भारती संस्कृति का क्षरण हुआ है जिसकी वजह से इस स्वांग कला के कद्रदानों में कमी आयी है। विगत तीन दषकों से उत्तर प्रदेष के विभिन्न जनपदों में पूरे सप्ताह लोगों का मनोरंजन करने वाले बिहार के दुमदुम जिला कैमुर निवासी मुहम्मद सलीम की बात ही निराली है। अमूमन हर किरदार चाहे वह पागल, प्रेमी, शैतान व मुनीम का हो जीवंत प्रस्तुत करते हैं। अपने किरदार से लोगों के गम, थकन, उदासी और बेचैनी को मिटाने वाले सलीम आज खुद बेचैन हैं। कहते हैं ‘पेट ही सब कुछ कराता है जनाब। पेट ना हो तो भेट ना हो।’
मुहम्मद सलीम कहते हैं कि ‘पहले जब मैं यहाँ आता तो बहुत सम्मान मिलता गाँव-गाँव घूम कर लोगों का मनोरंजन करता और लोग खूब बखषिष देते। हफ्ते भर के मनोरंजन के बाद आखिरी दिन मुनीम का रूप धारण कर मुहम्मद सलीम बड़े सलीके से अदाकारी पेष कर जो कुछ मिलता उसे अपने बही खाते में विधिवत दर्ज करते ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत पर काम आये। इनको अफसोस इस बात का है कि इस स्वांग कल की तरफ सरकार सरकार पूरी तरह से आँखें मूदे हुए है। यही वजह है कि मेरे बाद मेरे बच्चे इस लाइन में आना पसन्द नहीं करते। अब यह धन्धा मुनाफे का नहीं रहा। सरकार को चाहिए कि इसे अपना संरक्षण प्रदान करे ताकि यह कला जीवित रह सके। वरना बहुरूपिये वक्त के औराक़ बन जायेंगे।
प्रशासनिक उपेक्षा कहें या समाज की संवेदनहीनता कभी जिन बहुरूपियों से लोग लुत्फ अन्दोज हुआ करते थे, वे आज लुप्त होने के कगार पर हैं पर सरकार और समाज के रहनुमाओं की निगाह उनकी मुफलिसी पर नहीं पड़ती। गुमनामी में जीवन बिताते ये लोग कभी आम लोगों की खासा पसन्द हुआ करते थे मगर आज इनका कोई पुरसेहाल तक नहीं है।
भगवान शंकर का रूप धारण किये रामानन्द कहते हैं कि -
वक्त बदला है तो इजहार बदलने होंगे,
अब फसाने के हर किरदार बदलने होंगे।
अब फसाने के हर किरदार बदलने होंगे।
जिसका धन्धा ही उसकी बर्बादी का सबब हो ? जो दिन भर की मेहनत के बाद भी दो जून की रोटी के लिए मोहताज हो ? जिसके धन्धे में उसकी आने वाली पीढ़ीयों का मुस्तकबिल महफूज ना हो ? तो आप ही सोचिए क्या कभी वह व्यक्ति ऐसा घाटे का सौदा करना पसन्द करेगा ? हरगिज नहीं। कमोबेस यही हालत इन बहुरूपियों के साथ है। जहाँ पहले एक व्यक्ति दस-दस लोगों का परिवार चलाता था वहीं आज वह खुद मोहताज बने बैठा है। यहाँ काबिले गौर बात है कि ऐसे हालात में अपनी कुर्बानी देकर कौन इस स्वांग कला को जीवित रखेगा। कहते हैं जब तक प्यार और कला, आस्था और संवेदना, सहानुभूति और संस्कृति समाज के आधार स्तम्भ हैं तभी तक समाज है अन्यथा वह समाज या संस्कृति लुप्त हो जाती है।
दूसरों के कुम्हलाये चेहरों पर हंसी बिखेरने वाले ये बहुरूपिये आज खुद गमगीन हैं। खुद गमों का स्याह समन्दर पीकर दूसरों के चेहरों पर हंसी की लाली बिखेरने वाले इन कलाकारों की तल्ख जिन्दगी का आज कोई पुरसेहाल नहीं है। हंसी के इन बाजीगरों के सामने आज दो जून की रोटी का संकट तो है ही साथ में बहुरूपिये जैसे परम्परागत स्वांग कला को मिटने से बचाने का दायित्व भी। आज जिन्दगी से दो तरफा मोर्चा लिये ये बहुरूपिये सरकार और समाज की उपेक्षा झेलते कब तक अपनी कल को जिन्दा रख पाते हैं यह कहना शायद मुनासिब नहीं है। पर इतना जरूर है कि अगर ये इस जंग में हार गये तो भरत की एक प्राचीन सांस्कृतिक विरासत अवस्य मिट जायेगी। जिसके लिए सरकार और समाज की समान रूप से जिम्मेदारी होगी।
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